श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
‘भुवन भास्कर के बिना दिन कैसा, चन्द्र देव के बिना रजनी कैसी? नीलसुन्दर के बिना व्रज में रखा ही क्या है? उन्हें साथ लिये बिना ही हम सब गोकुल में लौट जाएँ- यह भी कभी सम्भव है? वारिहीन, सौन्दर्य विरहित सरोवर के समीप कौन जाता है?’-
‘बस चलो, यशोदा रानी के साथ हम सभी इस विशाल ह्नद में डूब जाँय!’-
इस प्रकार मूर्छा में लीन वात्सल्यवती व्रजपुरन्ध्रियों के प्राणों पर स्पन्दित होती हुई ये भावनाएँ उन्हें बाह्य चेतना की ओर ले चलीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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