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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
7. काकासुर का पराभव, औत्थानिक (करवट बदलने का) उत्सव, जन्म-नक्षत्र का उत्सव, शकटासुर-उद्धार
अन्तरिक्ष में वायु की-सी भीषण सन्-सन् ध्वनि हुई। कंस सहित सभी राक्षस-सामन्त शंकित होकर ऊपर की ओर देखने लगे। पर भय का कोई कारण न था। सबने तुरंत जान लिया कि यह तो उन्हीं का मित्र वात देहधारी उत्कच दैत्य है, जो काकासुर की बात सुनकर उपेक्षा की हँसी हँस रहा है। आज की घटना है - कंस प्रेरित काकासुर गोपकुलाधिपति नन्द के नवजात शिशु का प्राण हरण करने गोकुल गया था। इस जघन्य अभिसंधि को लिये हुए वह काग रूप में उड़ता हुआ नन्द प्रांगण में जा पहुँचा। शिशु को उसने देखा और शिशु ने इस काले कौवे को! दूसरे ही क्षण मानो वह पक्षी लोह पिण्ड हो और शिशु की बँधी हुई बायीं मुट्ठी में चमकती हुई नख-राशि हो अयस्कान्तमणि-शलाका (चुंबक की नली) - इस प्रकार अविलम्ब उसके तीक्ष्ण चंगुल बालक की मुट्ठी में जा गिरे तथा व्रजेन्द्र नन्दन ने भी देखते-ही-देखते एक विचित्र खेल खेल लिया-
संज्ञाशून्य काकासुर कंस के सभा मण्डप में ठीक कंस के सामने जा गिरा। एक पहर तक अथक उपचार होने पर कहीं उसमें बोलने की शक्ति आयी। उसने कहा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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