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श्रीकृष्णचन्द्र ह्नद की उस गभीर जल-राशि पर इस प्रकार चरण रखते हुए बाहर निकल आये, जैसे वह स्थल हो और तट पर आते ही श्रीअंगों की अप्रतिम शोभा से ह्नद का सम्पूर्ण परिसर उद्भासित हो उठा। दिव्य माल्य, चन्दन एवं वस्त्र की शोभा, अमूल्य रत्नाभरणों की छटा, स्वर्णालंकार की वह चमक-दमक सब कुछ अनोखी थी।
- कृष्णं ह्रदाद्विनिष्क्रांतं दिव्यस्त्रग्गंधवाससम्।
- माहामणिगणाकीर्णं जाम्बूनदपरिष्कृतम्॥[1]
- तब नँद-नंदन दह तैं निकसे।
- मुसकत नवल कमल-से बिकसे।।
- अहिपति निज कर पूजे स्याम।
- अद्भुत पट, अद्भुत मनि-दाम।।
- बन्यौ जु बदन सु को छबि गनौं।
- दीनी ओप चंद मधि मनौं।।
- इत जमुन-दह तैं कढ़े सुंदर स्याम घन छबि छाजहीं।
- नव रतन भूषन तन अलंकृत किरन जगमग राजहीं।।
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