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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
64. श्रीकृष्ण का कालिय के श्यानागार में प्रवेश और नाग वधुओं से उसे जगाने की प्रेरणा करना; नाग पत्नियों का बाल कृष्ण के लिये भयभीत होना और उन्हें हटाने की चेष्टा करना
मानो ऊँचे आकाश में उड़ता हुआ अत्यन्त वेगशील मत्स्यरंक (मछरलोका) पक्षी जल के अन्तराल में संतरण करते हुए अपने लक्ष्य भूत मत्स्य को देख ले तथा उसे अपनी चोंच में भर लेने के उद्देश्य से झप-से कूद पड़े - इसी प्रकार सर्वथा भयशून्य हो कर श्रीकृष्णचन्द्र कदम्ब तरु की तुंग शाखा से उछल कर नीचे- कालिय ह्नद के जल में समा गये-
साथ ही ह्रद के ऊपर चारों ओर चार सौ हाथ तक विषमय जल का प्रवाह बह चला। एक तो पहले से ही वहाँ, उस जलराशि में कालिय विष जनित लाल-लाल, पीली-पीली-सी विविध वर्णों की ऊँची लहरें उठ रही थीं, सब ओर से वह ह्नद अपने-आप क्षुब्ध हो ही रहा था और फिर उस पर अतिशय वेग से कूद पड़े परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र! अतः ऊपर और भी चार सौ हाथ परिमित स्थान में सहसा जल फैल जाय, उनके पतन के वेग से जल इतना उछल जाय- इसमें आश्चर्य ही क्या है। बाल्य लीला विहारी जिस समय व्रजेन्द्र गेहिनी के अंक में विराजित होते हैं, सखाओं की मनोहर क्रीड़ा में योगदान करते हुए किसी शिशु के स्कन्ध पर आरोहण करते हैं, उस समय उनका वह महामरकत-नील कलेवर अतिशय सुकोमल कुसुम दलों की अपेक्षा भी अत्यन्त मृदुल, मृदुलतर रहता है; एक लघु तूल पुञ्ज में जितना भार होता है, उससे भी कम भार नीलसुन्दर के श्रीविग्रह में प्रतीत होता है। पर वे ही श्यामल-कोमल स्निग्ध लघु भार समन्वित श्रीअंग जब असुरों के सम्पर्क में आते हैं, व्रजराज नन्दन की जब असुर दमन लीला आरम्भ होती है, तब फिर तो, देखने में ज्यों के त्यों रहने पर भी, उन्हीं अवयवों के अन्तराल में अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड की गुरुता, कोटि-कोटि व्रजसार की रूक्षता भी व्यक्त हो ही जाती है। अनन्त-बलनिधान व्रजराज तनय का बल यथापेक्षित रूप में प्रकाशित होकर ही रहता है। उनकी अपरिसीम ऐश्वर्य शक्ति आवश्यक मात्रा में क्रियाशील हुए बिना नहीं रहती। यहाँ भी जब लीला-बिहारी कालिय दमन लीला की अवतारणा करने चले हैं, तब तदनुरूप ही मंगलाचरण भी होना ही चाहिये। इसीलिये जल उनके कूदने से इतनी दूर उछल आया है। इसमें कुछ भी नवीनता नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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