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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
75. गोप-बालकों के साथ बलराम-श्रीकृष्ण की विविध मनोहारिणी लीलाएँ
शरद ने राशि-राशि कमलों के उपहार श्रीकृष्णचन्द्र को समर्पित किये, हेमन्त ने नवधान्यों का अम्बार सजाकर नन्द नन्दन की अर्चना की, शिशिर ने ओस कणों की असंख्य मालाएँ पिरो कर श्रीचरणों के लिये पथ सजाया वसन्त ने कुसुमित वल्लरियों का, मुकुलित आम्र शाखाओं का वितान निर्मित कर, मलयमारुत का व्यजन ढुलाकर, भ्रमर-गुञ्जन से, कोकिल के कुहू-कुहू रव से नीलसुन्दर का क्षण-क्षण में अभिनन्दन किया। इस प्रकार धेनुक वध के अनन्तर चार ऋतुएँ आयी तथा श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्द वर्द्धन कर, उनकी उन-उन लीलाओं के अनुरूप देश-काल का निर्माण कर वृन्दाकानन के सघन कुञ्जों में जा छिपी और अब इनके पश्चात समय पर ही आया है नन्द नन्दन के सप्तम वर्ष का ग्रीष्म। शरीरधारी मात्र इसके स्पर्श से जलने लगते हैं, इसलिये उन्हें यह बहुत प्रिय नहीं; किंतु वृन्दाकानन का स्पर्श इसे भी मनोरम बना देते हैं, सर्वथा बदल देता है इसके तपनशील, ज्वालामय स्वभाव को। व्रजवासी कालमान से गणना भले कर लें कि यह ग्रीष्म है, पर ग्रीष्म के दाहक गुण उनके दृष्टि पथ में नहीं आते। वहाँ तो वसन्त की ही छटा फैली होती हैं क्यों न हो, जहाँ अनन्त-ऐश्वर्य निकेतन स्वयं भगवान व्रजेन्द्र नन्दन एवं उनके अग्रज श्रीबलराम साक्षात विराज रहे हों, उनकी लीला मन्दाकिनी चिन्मय सरस धारा नित्य प्रसरित हो रही हो, वहाँ ग्रीष्म के जलते हुए नेत्रों में वसन्त की सुषमा क्यों न पूर्ण हो उठे!।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।18।2-3)
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