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किसी ने नहीं जाना-व्रजेश तनय ने वंशी वादन की शिक्षा कब, किस से ली। एक दिन सहसा वह अमृतपूर का प्रवाह बह चला एवं समस्त व्रजवासी उसमें निमग्न हो गये। कुछ क्षणों के लिये सबकी चेतना विलुप्त हो गयी; जब वे प्रकृतिस्थ हुए, तब भी अपने-आप निर्णय नहीं कर पाये कि यह क्या वस्तु है! कतिपय गोपसुन्दरियों ने अवश्य देखा-प्रस्फुटित पीतझिण्टी पुष्पों की झुरमुट को परिवेष्टित कर गोपशिशु आनन्द-कोलाहल कर हरे हैं और उसके अन्तराल में अपने को छिपाये, अपने बिम्बारुण अधरों पर हरित बाँस की वंशी धारण किये श्रीयशोदा के नीलमणि स्वर भर रहे हैं। अपलक नेत्रों से जड़ पुत्तलिका की भाँति वे तो खड़ी-खड़ी देखती रह गयीं; पर उनके प्राणों की अनुभूति का स्पर्श पाकर मानो पवन पुनः द्विगुणित चंचल हो उठा और उसने ही क्षण भर में इतने विस्तृत व्रजपुर में, व्रजपुर के प्रत्येक आवास में, आवास के कोने-कोने में यह सूचना भर दी कि यह तो व्रजरानी के नीलमणि की-नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र की बजायी हुई मोहन वंशीध्वनि है!
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