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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
56. ब्रह्मा जी के द्वारा व्रजवासियों के भाग्य की सराहना
‘अहो! अतिशय धन्य हैं वे व्रज की गायें और ये व्रजपुरवासिनी गोप-सुन्दरियाँ!’-पितामह अब गोकुल वासियों के भाग्य का अभिनन्दन करने लगते हैं, वह व्यक्त हुई लालसा- भक्त बनकर जन्म पा लेने की उनकी अभिलाषा केन्द्रित हो जाती है व्रजराज कुमार के अत्यन्त प्रिय पात्रों की ओर ही- ‘ये सौभाग्यशालिनी गौएँ, गोपांगनाएँ परम कृतार्थ हो चुकीं, प्रभो! देखो-क्या ही आश्चर्य है, नाथ! अनादिकाल से अब तक बड़े विधि-विधान से सम्पादित हुए समस्त यज्ञसमूह तुम्हें तृप्त कर देने में समर्थ न हो सके; स्वर्ग के देवगण अमृत का नैवद्य समर्पित कर, वेद-मर्मज्ञ, कुशल कर्मकाण्डी द्विजवृन्द सम्पूर्ण विविध विधियों से यज्ञ का उपहार निवेदित कर तुम्हें तृप्ति प्रदान न कर सके; तुम सर्वथा परिपूर्ण को, नित्य तृप्त को उन-उन अर्पित द्रव्यों से तृप्त होते न देख सके। परंतु आज उन्हीं तुमने, नित्य पूर्णस्वरूप होने पर भी, गोवत्स एवं गोपबालक रूप से इन गायों का, गोपिकाओं का स्तन्यपान किया है, अतिशय हर्ष एवं उमंग में भरकर इनके स्तनक्षरित दुग्धामृत का स्वयं अपने श्रीमुख से चूस-चूसकर स्वाद लिया है, वात्सल्य-प्रेमपरिपाकरूप इस अप्राकृत-सुधा से अपनी उदरपूर्ति की है। सबके देखते हुए ही यह आश्चर्य घटित हुआ है। गायों का, गोप-रमणियों का स्तन-दुग्ध-स्थूल दृष्टि से देखने पर अन्न-पान आदि से उद्भूत देह-विकारमात्र वस्तु, स्वयं निर्विकार नित्य तृप्त को पीते, ग्रहण करते सबने प्रत्यक्ष देखा है! उन गौओं एवं व्रजरमणियों के जीवनधारण की सफलता-कृतार्थता की पराकाष्ठा ही तो यह है, भगवन!’-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।14।31)
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