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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
74. बलराम-श्रीकृष्ण का किशोरावस्था में प्रवेश
एक दिन श्रीकृष्णचन्द्र के उन त्रैलोक्य सुन्दर श्रीअंगों पर पौगण्ड का साम्राज्य था, उनकी समस्त भाव-भंगिमाएँ उसकी छाप ले कर ही व्यक्त होतीं; किंतु उस पौगण्ड की भी सीमित अवधि थी। उसने सोचा- ‘जब मैं आया था, तब उन श्यामल अंगों पर कौमार का शासन था। अनेक क्रीड़ाओं की ओट में स्थित होकर मैंने क्रमशः उसे यहाँ से निस्सारित किया, शासन सूत्र अपने हाथ में लिया; क्योंकि कौमार इन मनोहर अवयवों में अपेक्षित विकास नहीं कर पा रहा था। हाँ, मेरी अपेक्षा भी अधिक योग्यता ‘कैशोर’ में अवश्य है और वह द्वार पर अपना अधिकार सँभालने आ भी पहुँचा है। मैं इसके लिये कोई त्याग कर रहा हूँ, यह बात नहीं; यह तो अवश्यम्भावी घटना है; निर्धारित समय पर ही वह आया है। एक तो वह उपयुक्त पात्र है, फिर अपने-आप आकर उपस्थित हो गया है। इतना ही नहीं- यह लो, उसके आते ही, उसकी छाया पड़ते ही नीलसुन्दर के श्रीअंगों पर कितना सुन्दर विकास परिलक्षित होने लगा है! अहा! कर्तव्य का कितना गम्भीर ज्ञान है इसे। अपने अस्तित्व की चरम कृतार्थता व्रजेन्द्र-नन्दन के श्रीअंग-स्पर्श से ही हो सकती है- यह विवेक इसमें है, तभी तो यह आया और ठीक अवसर पर आया तथा आते ही इसने अपनी योग्यता का परिचय भी दे दिया, आवास की व्यवस्था सँभाल ली, अभी-अभी देखते-देखते इसने कैसा सुन्दर विस्तार कर लिया। ’बस, यह विचार आते ही पौगण्ड ने अपने समस्त वैभव, श्रीकृष्णचन्द्र के श्रीअंगों पर प्राप्त हुए अपने सम्पूर्ण अधिकार कैशोर को समर्पित कर दिये और अलक्षित रूप से ही वह स्वयं अन्तर्हित हो गया-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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