विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
49. गोप-बालकों के साथ श्रीकृष्ण का वन-भोजन तथा भोजन के साथ-साथ मधुरातिमधुर कौतुक एवं कौशलपूर्ण विनोद
वे सरल-मति बालक कभी सोच ही नहीं सकते कि ऐसे सत्य सिद्धान्तों का संकेत भी उनके कन्हैया भैया के इन्हीं शब्दों में भरा है। उनके अन्तस्तल में तो निरन्तर विशुद्ध सख्य-भाव का अनन्त पारावारविहीन सागर हिलोरें ले रहा है। उनकी प्रत्येक चेष्टा की ओट से, उनके अणु-अणु से इस सागर की लहरें ही निर्झर बनकर झरती रहती हैं, क्षण-क्षण में एक-से-एक सुन्दर स्त्रोत बहता रहता है। कदाचित अवसर-विशेष पर-जैसे अभी-अभी कुछ क्षण पूर्व हो चुका है किसी अचिन्त्य प्रेरणावश उनके मानस-तल में उनके सखा श्रीकृष्णचन्द्र के अमित ऐश्वर्य का यत्किंचित स्फुरण हुआ भी, ऐश्वर्य-भावों की बूँदें बाहर आयीं भी तो उनके टिकने का स्थान नहीं; क्योंकि देखते-देखते ही, श्रीकृष्णचन्द्र की ओर उनकी दृष्टि पड़ते ही एक नवीन झोंका आया, विशुद्ध सख्य की एक अतिशय प्रबल लहर बाहर आयी और उसने इन विजातीय ऐश्वर्य के भावों को न जाने कहाँ से कहाँ अत्यन्त दूर फेंक दिया। इसीलिये गोपशिशुओं ने तो सचमुच यही समझा कि उनके कन्हैया भैया विष की अद्भुत महौशधि जानते हैं, उसी के प्रभाव से अघासुर का सिर फट गया। इस भावना ने उनके रोम-रोम को प्रफुल्लित कर दिया। वे सब आनन्द में भरकर, एक दूसरे को हृदय से लगाकर कहने लगे-
‘अरे भैयाओ! हमलोगों ने तो ज्योतिषी की भाँति तभी पहले से ही कह दिया था कि यह इसे वकासुर की तरह मार डालेगा।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |