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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
13. माँ यशोदा का शिशु श्रीकृष्ण के मुख में विश्वब्रह्माण्ड को देखना तथा श्रीराम कथा को सुनकर श्रीकृष्ण में श्रीराम का आवेश
इस प्रकार प्रबोधिनी निशा का अवसान होने के साथ ही श्रीकृष्णचन्द्र पर लगे हुए प्रतिबन्ध का भी अवसान हो गया। दूसरे दिन जिस समय व्रजेन्द्र प्रबोधिनी की पारणा करने से पूर्व वेदज्ञ ब्राह्मणों को चन्दन-चर्चित रत्नसंवलित, जलपूर्ण स्वर्णकलश, स्वर्णमयी नारायण प्रतिमा, राशि-राशि मणि-माणिक्य, वस्त्रपुंज एवं अन्नकूट का दान कर रहे हैं, उस समय राम एवं श्रीकृष्ण तोरणद्वार के उस पार गोवत्सों के मध्य में खड़े उनसे खेल रहे हैं। अवश्य ही जननी यशोदा भी सारा गृहकार्य, समस्त दान-धर्म भूलकर पीछे-पीछे आयी हैं-निकट ही खड़ी हैं, इस भय से कि कदाचित कोई गोवत्स नीलमणि के सुकोमलतम श्याम कलेवर में चोट न लगा दे। किंतु चंचल श्रीकृष्णचन्द्र में भय का लेश भी नहीं। सर्वथा निर्भीक रहकर वे बछड़ों का स्पर्श कर रहे हैं, उन्हें छूते हुए क्रमशः नन्दप्रसाद से संलग्न गोशाला प्रांगण में जा पहुँचते हैं। वहाँ अचानक एक कूदता हुआ बछड़ा उनके समीप आ जात है। जननी दौड़ पड़ती हैं। पर उनके आने से पूर्व श्रीकृष्णचन्द्र उस बछड़े को पकड़ लेते हैं। उनके कर-कमल का स्पर्श जाते ही बछड़ा भी सर्वथा शान्त होकर खड़ा हो जाता है। आनन्द में भरकर पहले वे स्वयं बैठ जाते हैं, फिर बछड़े को अपनी ओर खींचने लगते हैं। वह भी, मानो हिमनिर्मित गोवत्स प्रतिकृति हो, इस प्रकार धीरे-धीरे श्रीकृष्ण के द्वारा आकर्षित होकर बैठ जाता है, अपना सिर श्रीकृष्ण की गोद में गिरा देेता है। अब तो श्रीकृष्णचन्द्र के उल्लास की सीमा नहीं। वे अपनी दोनों भुजाओं से गोवत्स का कुख धारण कर लेते हैं। पश्चात अरुण पंकजदल सदृश अपने अधरों को उस पर रख देते हैं, गोवत्स के मुख का चुम्बन करने लगते हैं। ओह! यह दृश्य कितना मनोरम है; किंतु इसे देखकर जननी के हृदय में तो एक ही भय एवं कौतुक के दो स्त्रोत बह चलते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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