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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
13. माँ यशोदा का शिशु श्रीकृष्ण के मुख में विश्वब्रह्माण्ड को देखना तथा श्रीराम कथा को सुनकर श्रीकृष्ण में श्रीराम का आवेश
किंतु जैसे ही मैंने सीताहरण का प्रसंग सुनाया कि मेरे नीलमणि में एक आवेश उत्पन्न हुआ, उसकी तन्द्रा जाती रही; वह ‘लक्ष्मण! धनुष दो, धनुष दो’ कहकर उठ खड़ा हुआ-’
कह कहते-कहते व्रजरानी व्रजेश के हाथों पर सिर रखकर रोने लग गयीं। पुत्र की अनिष्ट-आशंका से वे अतिशय व्याकुल हो गयी हैं। व्रजेश्वर अतिशय मनोयोग से यशोदा रानी की बात सुनते रहे हैं। पर उनमें इस बार भय का संचार नहीं हुआ, प्रत्युत हर्षजन्य सात्त्विक विकार शरीर पर व्यक्त होने लगे। वे कुछ देर के लिये सामधिस्थ-से हो गये। फिर गद्गद कण्ठ से बोल उठे-‘नहीं-नहीं, यह कदापि राक्षसी माया नहीं, असुरावेश के द्वारा यह असम्भव है; यह तो सर्वथा मेरे नाथ, जगन्नाथ श्रीनारायण की माया है। मेरे पुत्र में समय-समय पर निश्चय ही मेरे इष्टदेव का आवेश होता है, उनका वैभव प्रकाशित हो जाता है; ओह! वे निरन्तर मेरे पुत्र की रक्षा कर रहे हैं। नहीं, अब अन्य उपाय की आवश्यकता नहीं। व्रजरानी! दोनों बालकों पर से सारा प्रतिबन्ध हटा दो, इन्हें व्रज में स्वच्छन्द विचरने दो; विश्वपति स्वयं इनकी रक्षा कर रहे हैं। अनिष्ट की चिन्ता छोड़ दो, भय का कोई कारण नहीं है।’ गोपेन्द्र की अत्यन्त दृढ़, गम्भीर, ओजभरी इस वाणी ने क्षणभर में श्रीयशोदा का सारा संताप हर लिया। साथ ही योगमाया की योजना भी सफल हो गयी। श्रीकृष्णचन्द्र की इस अघटन घटनापटीयसी योगमाया शक्ति ने ही तो उनके इस वैभव का विस्तार किया था; क्योंकि वे अनुभव करने लगी थीं-‘मेरे प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र-अग्रज राम के सहित नन्दप्रासाद की सीमा में अवरुद्ध हैं, तोरणद्वार का उल्लंघन नहीं कर सकते; परन्तु अब वे व्रजपुर में विहार करने के लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हैं, इसी समय उनकी इस इच्छा के अनुकूल रंगमंच की रचना अनिवार्य है; मैं करूँगी ही। यह लो! देखो, कर चुकी-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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