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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
13. माँ यशोदा का शिशु श्रीकृष्ण के मुख में विश्वब्रह्माण्ड को देखना तथा श्रीराम कथा को सुनकर श्रीकृष्ण में श्रीराम का आवेश
यह मनोहर दृश्य दूर खड़ी हुई श्रीरोहिणी भी देख रही हैं। उनके नयनों में भी भय भरा है, कहीं गोवत्स सहसा पुनः उछल पड़े और नीलमणि उसकी चपेट मे आ जाय! वे तो अधिक देर तक इस कौतुक का आनन्द ले भी न सकीं। श्रीकृष्णचन्द्र के पास जाकर उन्हें अपनी गोद में उठा ही लिया। श्रीकृष्ण भयभीत जननी-युगल की ओर देखने लगते हैं। उनके अधरों पर मन्द-मन्द मुस्कान है। दूर पर खड़े श्रीराम भी हँस रहे हैं। इन दोनों को साथ लेकर दोनों जननियाँ प्रासाद की ओर चल पड़ती हैं। दोनों ही चिन्ता में निमग्न हैं, सोचती जा रही हैं कि ‘ये दोनों बालक जब से घुटरूँ चलने लगे हैं, तभी से अतिशय चंचल हैं। अब तो इनके पैर हो आये हैं, ये दौड़ने लगे हैं; अब इनकी रक्षा की क्या व्यवस्था करें?’ राम-कृष्ण की समस्त चेष्टाओं के सुन्दर चित्र दोनों जननियों के स्मृति पट पर नित्य अंकित रहते हैं। सजातीय प्रसंग उपस्थित होते ही वे सजीव-से बनकर नेत्रों के समक्ष आ जाते हैं। इसलिये यद्यपि पुत्र को गोद में लिये वे नन्दभवन की ओर बढ़ रही हैं; पर नेत्रों के सामने राम-कृष्ण की, छः मास पूर्व की चचंलतापूर्ण बाल्यभंगिमा नाच रही है। वे स्पष्ट एक-एक चेष्टा आ रही हैं-‘एक महिप के पृष्ट-देश पर श्रीकृष्ण चढ़ने की चेष्टा कर रहे हैं, राम उसकी पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं। सामने प्रज्वलित अग्नि है, उस अग्निशिखा के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर दोनों उसे पकड़ना चाहते है। एक श्वान गृहालिन्द के पास खड़ा है, उसे देखते ही राम-कृष्ण उसकी ओर दौड़ पडते हैं; परमानन्द में निमग्न होकर वह श्वान पुच्छसंचालन करने लगता है, श्रीकृष्ण के सामने सिर झुका देता है, राम उसकी ग्रीवा में अपनी भुजा डाल देते हैं; श्रीकृष्ण उसके विस्फारित मुख में अपना हाथ डालकर उसकी अरुण जिह्वा पकड़ लेते हैं; पकड़कर खींचते हैं। एक कृष्णसर्प आया है, दोनों उसके निकट आ पहुँचे हैं; पहले राम ने उसकी पूँछ खींची, सर्प अपने फन का विस्तार कर खड़ा हो गया; श्रीकृष्ण ने उसके फन पर हाथ रख दिया; बस, तुरन्त फन समेट कर वह पृथ्वी पर शान्त लोट गया; पास में अवस्थित छोटे बच्चे ताली पीट हरे हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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