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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
13. माँ यशोदा का शिशु श्रीकृष्ण के मुख में विश्वब्रह्माण्ड को देखना तथा श्रीराम कथा को सुनकर श्रीकृष्ण में श्रीराम का आवेश
नन्दोद्यान के गम्भीर कूप के समीप दोनों जा पहुँचे हैं; दोनों ने मिलकर, पूरा बल लगाकर रस्सी में बँधी हुई कलसी को कूप में फेंक दिया, फिर कलसी को खींचना चाहते हैं; किंतु जलपूर्ण कलसी दोनों के बल को अपेक्षा अधिक भारी हो गयी है, अपनी असमर्थता अनुभव कर दोनों ‘माँ-माँ’ पुकार उठते हैं। नन्दप्रांगण में आनन्दमत्त मयूर नृत्य कर रहा है; दोनों निर्निमेष नयनों से यह नृत्य देखते हैं, फिर धीरे से जाकर मयूर के चित्रित छत्र को पकड़ लेते हैं; मयूर अपनी ग्रीवा एवं चंचुको नचा-नचाकर अधिकाधिक आनन्द का अनुभव कर रहा है। उद्यान में राम-कृष्ण खेल रहे हैं; उन्होंने सहासा देखा-कण्टक-आवरण के अन्तराल में एक हरित लता फैली है, उस पर अतिशय सुन्दर पीताभ कुसुम प्रस्फुटित हो रहे हैं; उन्हें तोड़ने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने कण्टक-आवरण (बाड़) में अपना सिर डाला है, राम पेट के बल प्रवेश करने की चेष्टा कर रहे हैं। इस तरह अतीत की स्मृति भी व्रजरानी एवं रोहिणी के समक्ष तात्कालिक-सी बनकर आयी है और वे परस्पर निश्चय कर रही हैं-‘बहन! पुत्रों की रक्षा तब होगी, जब हम दोनों गृह कार्य का सर्वथा परित्याग कर दें; इन चंचल बालकों की रक्षा एवं गृहकार्य का समाधान दोनों एक साथ सम्भव नहीं, हमसे हो सकते ही नहीं। आह! यदि महिष अपने श्रृंगों से दोनों बालकों पर आघात कर देता, अग्निशिखा जला देती, वह कुक्कुर काट खाता, सर्प डँस लेता, वे दोनों कूप में जा गिरते, मयूर चोंच से नोंच खाता, तीखी बाड़ के काँटे राम-श्याम शरीर में बिंध जाते तो फिर हम अभागिनों की क्या दशा होती?’ यह सोचते-सोचते व्रजरानी एवं रोहिणी का मन पुनः अतिशय चंचल हो उठा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।8।25)
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