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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
13. माँ यशोदा का शिशु श्रीकृष्ण के मुख में विश्वब्रह्माण्ड को देखना तथा श्रीराम कथा को सुनकर श्रीकृष्ण में श्रीराम का आवेश
उपर्युक्त भावना में बहती हुई व्रजरानी एवं रोहिणी वहाँ जा पहुँचती हैं, जहाँ व्रजेन्द्र इस समय भी वन्दीजनों को रत्नराशि लुटा रहे हैं। प्रबोधिनी की पारणा भी अभी तक उन्होंने नहीं की है। पर अब ने दान देना भूलकर रोहिणी एवं यशोदा की गोद में अवस्थित राम-श्याम की ओर देखने लगते हैं। व्रजेश्वर को अपनी ओर ताकते देखकर श्रीकृष्ण बोल उठते हैं-‘बाबा! मैं गोवत्सों के साथ खेलने गया था, मैया मुझे उठा ले आयी है।’ ओह! मानो ये शब्द नहीं, एक अमृत-स्त्रोत फूट निकला, कर्णरन्ध्रों के पथ से; वह व्रजेश्वर, व्रजरानी, श्रीरोहिणी के अन्तस्तल में जा पहुँचा; उनके प्राण सिक्त हो गये। तीनों के प्रबोधिनी व्रत की वास्तविक पारणा हो गयी। साथ ही इस अमृतधारा में व्रजेश्वरी के, श्रीरोहिणी के पुत्ररक्षण की चिन्ता भी विलीन हो गयी। व्रजेश्वर के स्मृति पथ में इस समय है एकमात्र श्रीकृष्ण का मुखारविन्द! व्रजरानी की समस्त वृत्तियाँ तन्मय हो रही हैं केवल श्रीकृष्ण के मुखकमल में!! श्रीरोहिणी को और सब कुछ विस्मृत होकर स्मरण है बस, एकमात्र श्रीकृष्ण वदनाम्भोज!!! उसके एक दिन बाद त्रयोदशी के प्रातःकाल श्रीकृष्णचन्द्र को अद्भुत श्रृंगार से विभूषितकर व्रजरानी के उन्हें विस्मृत प्रांगण में खेलने के लिये छोड़ दिया। गीत गा-गाकर मणिस्तम्भों की परिक्रमा करते हुए वे खेलने लगे। इसी समय व्रजपुर की एक नववघू नन्दोद्यान में केतकी-पुष्प चयन करने आयी। पुष्पचयन के पश्चात् उत्सुकतावश पाश्ववर्ती गोशाला में चली गयी। वहाँ से बरबस आकर्षित-सी हुई नन्दभवन में जा पहुँची और उसने श्रीकृष्णचन्द्र को देख लिया। बस! देखते ही मोहित हो गयी। यह भूल गयी कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ। कहीं तीसरे पहर बाह्यज्ञान हुआ और घर पहुँची। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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