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किंतु यदि तुम इतने महान नहीं बन सकते, केवल परार्थ जीवन-धारण के लिये तुम प्रस्तुत नहीं हो तो स्वार्थ के लिये भी तुम इस धरा का आदर्श स्वीकार करो। देखो तो सही, धरणी कैसी हो गयी थी, तप करते-करते इसकी क्या दशा थी। सचमुच अत्यन्त कृश-शुष्क हो गयी थी यह। क्यों न हो, कितने मासों तक इसने जी की एक बूँद को भी ग्रहण नहीं किया था। बस, नील जलधर की आशा लगाये बैठी थी। उसका परिणाम यह हुआ है कि आखिर श्याम जलधर आया ही और जैसे सकाम तपस्वी का शरीर काम्य तप का पूर्ण फल पाकर हृष्टपुष्ट हो उठता है, वैसे ही धरा भी जलधर की दी हुई वारिधारा से सिक्त होकर उत्फुल्ल हो उठी है। इसी प्रकार तुम भी तपश्चर्या में संलग्न हो जाओ, जगत के सम्पूर्ण भोगों को त्याग कर एक बार सूख जाने दो अपने आपको। किसी के द्वारा दिये हुए प्रलोभन का एक कण भी स्वीकार मत करो। बस, एक मात्र आशा लगाये रहो नवनीर दाभ गोकुलेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र की। फिर तुम्हारे हृदयाकाश में भी इन अभिनव श्यामल मेघ का उन्मेष होकर ही रहेगा; इनकी दी हुई आनन्द धारा से सिक्त होकर तुम सदा के लिये खिल उठोगे चाहे किसी भी उद्देश्य से तुमने इनकी आशा क्यों न लगायी हो!
- तप:कृष्णा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही।
- यथैव काम्यतपसस्तुनु: सम्प्राप्य तत्फलम्॥[1]
- ग्रीष्म-ताप करि कृश हुति धरनी।
- सरस भई, सोहति बर-बरनी।।
- ज्यौं सकाम कोउ फल कौं पाइ।
- भोगन भुगति पुष्ट ह्वै जाइ।।
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