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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
79. व्रज में पावस की शोभा का वर्णन
व्रजपुर की पावस ऋतु में आयी हुई संध्या के समय आकाश में तरुवल्लरियों के ओट में चमकते हुए ये खद्योत भी अपनी अनजान में तुम्हें कुछ संदेश दे रहे हैं। एक विचित्र-सा संकेत हो रहा है इनसे। अवश्य सुन लो; क्योंकि तुम जहाँ हो, वहाँ के काल का स्वरूप जिस काल में निरन्तर सावधान रहने में ही लाभ है- तुम जान लोगे। देखो, इस सांध्य तिमिर में सम्पूर्ण व्रज आच्छादित है, चन्द्र एवं शुक्र आदि तारक-मण्डल का प्रकाश सर्वथा लुप्त हो चुका है। हाँ, अगणित खद्योत अवश्य उड़ रहे हैं और उनके पुच्छ देश का प्रकाश भी दीख रहा है। अब कलियुग के समय क्या होता है, जानते हो? अच्छा सुनो, पाप का तिमिर अत्यन्त घन हो जाता है। वैदिक सम्प्रदाय के दर्शन तो होने से रहे। उनके स्थान पर अगणित पाखण्ड मतों का प्रचार चलता रहता है। अब तुम्हीं सोचो, जुगनू के प्रकाश में कहीं व्रजरानी के अन्तःपुर में विराजित व्रजेन्द्र कुलचन्द्र का दर्शन पा सकोगे! दर्शन तो दूर, नन्द भवन किस ओर है, यह अनुसंधान भी लग सकेगा क्या? इसी प्रकार तुम्हारे मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य पाखण्ड मतों से सिद्ध हो सकेगा? उसे छोड़ो, लोक-व्यवहार का निर्वाह भी कर सकोगे क्या? अत एव ऐसी भूल मत कर बैठना कि खद्योत-प्रकाश को ही चन्द्र का प्रकाश मान लो। जिनसे प्रकाश लेकर केवल चन्द्र ही नहीं, समस्त ज्योतिष्क मण्डल प्रकाशित है, वे तेा व्रजेन्द्र गेहिनी के समीप उनके पर्यंक पर विराजित हैं और उनके श्रीअंगों की नीली ज्योति से अभी इस समय भी व्रजेश का आवास, आवास का कण-कण उद्भासित है। यदि तुम्हें पथ नहीं दीख रहा है तो चिन्तित मत हो। तुम जहाँ, जैसे अवस्थित हो, वहीं से वैसे ही भावमय अर्घ्य उन खद्योतों के आलोक को लक्ष्य करके नहीं, अपितु व्रजेन्द्र कुलचन्द्र के उद्देश्य से समर्पित करो। फिर देखोगे, धन तिमिर का वह आवरण फट जायगा, अपूर्व ज्योत्स्ना विस्तार हो जायगा, खद्योत-प्रकाश को आत्मसात कर लेगी वह ज्योत्स्ना और नन्द भवन के पथ के क्या, स्वयं व्रजपुर के चन्द्रमा के ही दर्शन तुम्हें वहीं से हो जायँगे-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।20।8)
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