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जगत के जीवो! कदाचित इन महामेघों का पाठ तुम भी पढ़ सकते; नीलसुन्दर को हृदय में बसा कर बाहर-भीतर उनके रंग में रँग जाते! फिर तो तुम्हारा अस्तित्व भी विश्व के लिये अशेष मंगलकारी होता, करुणा के झकोरों पर उड़ते हुए तुम भी सदा रस बरसाते होते, जगत का ताप मिट जाता और अन्त में तुम्हारा नित्य निवास होता नीलसुन्दर के नेत्र सरोजों में!
- तडित्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिता:।
- प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचु: करुणा इव।।[1]
- तड़ित-दृगन करि मेघ महंत।
- देखे ताप तपे सब जंत।।
- प्रेरे पवन सुजीवन बरषै।
- सब के दुख करषै, मन हरषै।।
- जैसें करुन पुरुष पर हेत।
- अपने प्यारे प्रानन देत।।
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