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इन मेघों के अन्तराल में एक और रहस्य है- उसे देखो! ये महान मेघ निरन्तर बरस रहे हैं। क्यों, जानते हो? अच्छा सुनो इन्होंने अपनी विद्युत की आँखों से दूसरे की व्यथा-व्याकुलता देख ली। पवनरूपी दया ने इन्हें झकझोर दिया। उसके प्रचण्ड वेग से परिचालित होकर ये उड़-उड़ कर आ गये तथा अपने हृदय का जलरूपी सम्पूर्ण रस उड़ेलने जा रहे हैं। विश्व आप्यायित हो रहा है। सर्वथा दयाशील सत्पुरुषों का ही स्वभाव व्यक्त हो रहा है इन महामेघों में। वे करुण महापुरुष भी तो यही करते हैं। जीवों का दुःख देखते ही वे कृपा-परवश हो उठते हैं तथा अपना सर्वस्व देकर प्राण तक न्योछावर करके पीड़ितों को सुख-सुविधा का दान करते हैं। किंतु यह करुणता भी आती है मूलतः उन्हीं नीलसुन्दर के सलोने दृगों से झरकर ही। जिनके हृदय का स्रोत ‘अहम’ को विदीर्ण कर उन करुणा सिन्धु की करुण लहरों से संगमित हो पाता है, उसी में ऐसी दयाशीलता व्यक्त होती है। इन महामेघों में व्रजराज नन्दन के श्रीअंगों की नीलिमा को अपनाया। बाहर-भीतर ये रँगे हुए हैं उनके रंग में। तभी तो ये बरस रहे हैं दूसरों के ताप-निवारण के लिये और बरसते-बरसते ये विलीन हो जायँगे इस व्रजपुर के आकाश में, नहीं-नहीं, शरत-कालीन जलाशय में विकसित सुन्दरातिसुन्दर सरसिज-कर्णिका की सुषमा धरण करने वाले श्रीकृष्ण-नयनों में।
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