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सूर्य भी आज पावस के समय यही कर रहे हैं। लेना होता ही है देने के लिये सूर्यदेव का यह इंगित कितना स्पष्ट है! सच तो यह है कि यह गुण भुवन-भास्कर में संचारित हुआ ही है व्रजेन्द्र तनय से। वे भी लेते-से दीखते हैं; किंतु कहाँ अपने समीप रखते हैं वे किसी के द्वारा कुछ भी दी हुई वस्तु को। कितना सुन्दर बना कर और कैसी अपरिसीम मात्रा में परिवर्द्धित करके वे अर्पित वस्तु को लौटा देते हैं- इसे देखन चाहो तो देख लो उनके चारु चरणों में न्योछावर हुए प्रत्येक भक्त के जीवन में। अतएव चिन्तित मत होना; अपितु अहो भाग्य समझना, यदि नीलसुन्दर तुम्हारी कोई-सी वस्तु ले लें। अप्रतिम सुन्दर एवं अनन्त बनकर तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास ही लौट आयेगी, भला! दिवाकर का यह संकेत समझ रहे हो न?
- अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु।
- स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्य: काल आगते॥[1]
- अष्टमास धर कौ जल जितौ।
- रस्मिन करि रबि पीयत तितौ।।
- चारि मास पुनि निर्झर झरैं।
- सब दुख हरैं, सुखन बिस्तरैं।।
- जैसें नृप अपनौ कर लेइ।
- समय पाइ पुनि परजहि देइ।।
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