विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
75. गोप-बालकों के साथ बलराम-श्रीकृष्ण की विविध मनोहारिणी लीलाएँ
किंतु अधिक देर तक ये मल्ल क्रीड़ा चल नहीं पाती। सदा की भाँति स्तोक कृष्ण गरज उठता और सभी शंकित हो जाते- ‘अरे! कन्नू श्रान्त हो गया है।’ तथा प्रसंग बदलने के उद्देश्य से एक मण्डली का प्रस्ताव अग्रज बलराम के समक्ष या नीलसुन्दर के आगे आ जाता- ‘अरे दादा! अरे कन्नू भैया! हम लोग तो नाच ही नहीं सके, कुछ हम लोगों की भी कला देखो!’ बस, वहीं श्रीकृष्णचन्द्र एवं रोहिणी नन्दन का कार्यक्रम बदल जाता। पुनः छिड़ जाती बाँसुरी की तान, वह चलती संगीत की मधु धारा और वे शिशु नृत्य करने लगते। स्वयं श्याम - बलराम राग अलाप कर, वंशी-श्रृंग बजा कर उनमें उत्साह भरते, साथ ही नृत्य के ताल परिवर्तन के समय न जाने कैसे, संगीत-स्वर लहरी, वाद्य-झंकृति अक्षुण्ण बनी रह कर ही दोनों भाइयों के श्रीमुख से निर्गत साधुवाद का वह सुधास्यन्दी स्वर सखाओं में आनन्दोन्माद का संचार करने लगता। अस्तु, यह उद्दाम नृत्य पुनः चञ्चल चेष्टाओं को जाग्रत करता। देखते-देखते ही बिल्व, जायफल, आमलकी फलों को परस्पर एक दूसरे पर फेंकने की क्रीड़ा आरम्भ हो जाती। मार बचाने के उद्देश्य से पराजित दल कुञ्जों में छिपने जाता और इस प्रकार आँख-मिचौनी के खेल का सूत्रपात होता। दौड़-दौड़ कर परस्पर स्पर्श करने की क्रीड़ा भी इसके अन्तर्गत ही प्रारम्भ हो जाती तथा आगे चलकर न जाने कितने रूपों में यह खेल चलता रहता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |