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अब दूसरी क्रीड़ाओं का क्रम चलता। कभी दोनो भाई राम-श्याम परस्पर हाथ पकड़ कर कुम्हार के चाक की तरह घूमने लगते। उस समय कंधों पर झूलती हुई उनकी घुँघराली अलकें अद्भुत शोभा धारण करतीं। पुनः साधुवाद का स्वर गूँजता और शिशु भी तत्क्षण इस ‘घुमरी-परेता’ खेल का अनुकरण आरम्भ करते। तब तक राम-श्याम में होड़ लगती कौन कितनी दूर पृथ्वी को फाँद सकता है। फिर तो दोनों ही साथ-साथ कूदते और कई हाथ लंबी भूमि का लंघन कर जाते। कभी यह परीक्षा होती कि क्षेपण यन्त्र से अथवा हाथ के वेग से ही ढेले, प्रस्तरखण्ड अथवा अमुक मान के फल को कौन कितनी दूर फेंक सकता है। कभी ताल ठोक-ठोक कर दोनों भाई दो दलों के अधिनायक बन जाते! नीलसुन्दर अपना दुकूल अथवा राम अपना उत्तरीय गोदोहन की रज्जु में लपेट देते। इसकी एक छोर को पकड़ लेता राम के सहित राम का दल एवं दूसरे छोर को धारण करता नीलसुन्दर के सहित उनका दल और तब उसे खींचते दोनों अपनी-अपनी ओर। विजय किसकी होती, इसे देखते अन्तरिक्षचारी देवगण अथवा वे देखें, जिन्हें वैसी आँखें प्राप्त हों। शिशुओं में तो विवाद हो जाता ‘जय मेरी हुई। नहीं-नहीं, मेरे दल की हुई।’ अवश्य ही उस समय भी राम-श्याम हँसते होते तथा बलाबल का निर्णय करने के लिये जब बाहुयुद्ध की परस्पर दोनों दलों में चुनौती होती, तब हँस-हँस कर पहला युद्ध दोनों भाइयों का ही होता।
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