विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
75. गोप-बालकों के साथ बलराम-श्रीकृष्ण की विविध मनोहारिणी लीलाएँ
विहंगम एवं पशुओं की चेष्ठानुकृति भी दैनंदिनी क्रीड़ा का आवश्यक अंग है ही। यह भी होती ही। साथ ही अल्प वयस्क शिशुओं के साथ मेढ़क की भाँति फुदक-फुदक कर चलने का खेल राम-श्याम न खेलें- यह कैसे सम्भव है। अपने मुँह फुला-फुला कर, उसे भाँति-भाँति से विकृत कर सजाकर सखाओं का आनन्दवर्द्धन भी वे करेंगे ही, करते ही। इसके अतिरिक्त वह स्थावर तरु श्रेणी सेवा समर्पित करने की, उनके योगीन्द्र-मुनीन्द्र-दुर्लभ श्रीअंग स्पर्श की प्रतीक्षा में ही तो खड़ी हैं तथा परमोदार गुणागार प्रभु उसका मनोरथ पूर्ण किये बिना कैसे रहें? इसीलिये उन तरु शाखाओं में अपने हाथों झला डालकर श्रीकृष्णचन्द्र झूमने लगते। सज्यशासन, प्रजा पालन का खेल हुए बिना भी उन शिशुओं को चैन नहीं। इसलिये इसका भी सम्पूर्ण अनुकरण होता। राजा के पद को या तो सुशोभित करते नीलसुन्दर या बलराम और फिर देखने योग्य होती उनकी वह खेल-खेल की अद्भुत शासन-व्यवस्था। अस्तु, यह है उनकी ग्रीष्म कालीन विशेषतः आज की क्रीड़ा की एक संक्षिप्त सूचिका-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।18।10-15)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज