माखन चोरी 2

माखन चोरी

लीला-दर्शन

यह गोप सुन्दरी नन्द भवन में आयी थी। इसने अन्य पुर-रमणियों के मुख से श्रीकृष्णचन्द्र के मणि स्तम्भ में अपने प्रतिबिम्ब से भ्रमित होने की लीला तथा -
प्रथम करी हरि माखन चोरी।
ग्वालिनि मन इच्छा कर पूरन आपु भजे ब्रज खोरी।।

इसका विस्तृत वर्णन सुनो। सुनकर प्रेम में डूब गयी, उसी क्षण व्रजेश्वरी के पास पहुँची। गद्गद गण्ठ से पूछा - ‘व्रजरानी! नीलमणि किधर है?’ उत्तर में यशोदा रानी ने उद्यान की ओर संकेत कर दिया और बोलीं - ‘बहिन! तू उधर जाय तो उसे कह देना कि मैया बुला रही है और अपने साथ ही लेती आना।’ बस, वह मन्त्र मुग्धा-सी अविलम्ब उद्यान की ओर दौड़ पड़ी। तमाल वेदी पर गोपशिशुओं के कोलाहल ने उसे श्रीकृष्णचन्द्र का पता बता दिया और वह वहाँ जा पहुँची।

जब श्रीकृष्णचन्द्र ने घर लौटना अस्वीकार कर दिया, तब वह वहीं बैठ गयी। उसके नेत्र छल-छल करने लगे। इसलिये नहीं कि श्रीकृष्णचन्द्र घर क्यों नही चल रहे हैं, उसके हृदय मकी तो वेदना ही दूसरी है। वह सोच रही है - ‘हाय! मैं अभागिनी नन्द भवन से इतनी दूर क्यों बसी; जैसे श्रीकृष्णचन्द्र उस ग्वालिन के घर गये, माखन खाया, वैसे इतनी दूर मेरे घर आने की, मेरा माखन आरोग ने की तो सम्भावना ही नहीं है।’ ये भाव गोप सुन्दरी के प्राणों में टीस उत्पन्न कर रहे थे। इसीलिये उसके नेत्र भर आये। वह अपने भावों को संवरण करना चाहती है, किंतु कर नहीं पाती। श्रीकृष्णचन्द्र के सलोने मुख की ओर जितना देखती है, उतनी ही यह लालसा प्रबल होती जा रही है। यहाँ तक कि उसे अनुभव होने लगा कि ‘यदि कुछ क्षण मैं यहाँ और रुकी रही तो इस लालसा के भार से चेतना शून्य हो जाऊँगी। फिर तो श्रीकृष्णचन्द्र की इस स्वच्छन्द, आनन्दमयी क्रीड़ा में विघ्न हो जायगा।’ इसीलिये वह अपना सारा साहस, धैर्य बटोर कर उठ खड़ी हुई और नन्द भवन की ओर लौट पड़ी। उसे पथ नहीं दीख रहा है, नेत्रों से अश्रु धारा दोनों कपोलों पर बह रही है। किसी तरह अपने को सँभाले और नेत्रों में, हृदय में श्रीकृष्णचन्द्र की झाँकी लिये वह चली जा रही है। व्रजेश्वरी के निकट पहुँची, किंचित धैर्य हो आया; नील मणि ने आना स्वीकार नहीं किया, यह बात व्रज रानी को बताकर वह अपने घर चली गयी।

गोप सुन्दरी के मनोगत भावों का और किसी को तो पता नहीं, पर व्रजेन्द्र नन्दन स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की अचिन्त्य लीला महाशक्ति को सब कुछ ज्ञात है। वे ही तो यशोदा के वात्सल्य-सुधा-सागर पर संतरण करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र की चेष्टाओं का नियन्त्रण करती हैं। वात्सल्य की कौन-सी पयस्विनी इस सागर से मिली है, कहाँ पर संगम है, कौन-सी वात्सल्य धारा मिलने आ रही है, कहाँ संगमित होगी, किस संगम पर, किस वात्सल्य तीर्थ पर श्री व्रजेश पुत्र को आज स्नान कराना है - इन सबकी पूरी सूची उन्हीं के पास तो है। अपने इच्छानुसार, अपने निर्दिष्ट क्रम से वे श्रीकृष्णचन्द्र को लहरों पर बहाती हुई किसी संगम पर ले जाती है। श्रीकृष्णचन्द्र वहाँ स्नान करते हैं, अञ्जलि में भरकर वात्सल्य सुधारस का पान करते हैं, एक-दो छींटे किनारे पर बिखेर देते हैं, इन्हीं बिन्दुओं से प्रपञ्च-जगत के वात्सल्य-स्रोत में रस का संचार सदा होता रहता है, स्रोत कभी सूखता नहीं। अतः लीला महाशक्ति को व्रज सुन्दरी के हृदय की धारा का पूरा पता है। वह जानती है कि यह धारा भी इसी सागर से मिलने आ रही है। इन्हें तो प्रत्येक के संगम पर श्रीकृष्णचन्द्र को अवगाहन - प्रत्येक की पवित्र सुधा का मुक्त आस्वादन कराना है। इसीलिये ये क्रमशः सबके लिये द्वार खोलती रहती हैं। अतः इसके लिये भी कपाट उन्मुक्त करने चलीं।



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