प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव 4

प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव


गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं-

ऊधो मन न भये दस बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम सँग, को अवराधै ईस।।
इंद्री सिथिल भई केसो बिन ज्यों देही बिनु सीस।
आसा लगी रहत तनु खासा जीजो कोटि बरीस।।
तुम तो सखा स्यामसुंदर के सकल जोग के ईस।
सूरदास वा रसकी महिमा जो पूँछैं जगदीस।।[1]
तथा-

ऊधौ जोग जोग हम नाहीं।
अबला सार ज्ञान कह जानै, कैसें ध्यान धराहीं।।,
तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं।
स्त्रवन चीरि सिर जटा बँधावहु, ये दुख कौन समाहीं।
ऐसी कथा कपट की मधुकर हम तैं सुनी न जाहीं।।
चंदन तजि अँग भस्म बतावत, बिरह अनल अति दाहीं।।
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तो है अप माहीं।
‘सूर’ स्याम तैं न्यारी न पल छिन, ज्यौं घट तैं परछाहीं।।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भजन-संग्रह 182
  2. सूरसागर पद 4541

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