पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. इन्द्रप्रस्थ से विदा
अर्जुन की आन्तरिक इच्छा थी श्रीकृष्ण के साथ जाने की किन्तु वे अपने सखा की सम्मति का असम्मान नहीं कर सकते। उन्हें इन्द्रप्रस्थ अनिच्छापूर्वक रुकना पड़ा। रथों की उपयुक्त व्यवस्था की गयी। श्रीकृष्ण रानियों ने कुन्ती देवी के चरणों में प्रणाम किया। उनका आर्शीवाद लेकर महारानी द्रौपदी तथा सुभद्रा से मिलकर वे रथों में बैठीं। पाण्डव, आचार्य धौम्य आदि तथा नगरवासी अच्युत को पहुँचाने चले। पुरनारियों ने छज्जों पर–से पुष्प, लाजा, दधि, दूर्वांकुर, केशर आदि की वर्षा करके श्रीद्वारिकाधीश को सत्कृत किया। वाद्य, शंखनाद, विप्रों का स्वस्ति पाठ सब सफल हुए। दूर तक पाण्डव पहुँचाने गये। श्रीकृष्ण बलराम ने अत्यन्त आदरपूर्वक पुरवासियों को लौटाया। ब्राह्मणों को, सूत, मागधादि को दान देकर विदा किया। सबने उन्हें आर्शिवाद दिया। अन्तत: पाण्डवों को भी लौटना ही था। युधिष्ठिर और भीमसेन की अच्युतने पद-वन्दना की। अर्जुन को अंकमाल दी। नकुल-सहदेव ने उनका चरण-स्पर्श किया और जनार्दन विदा हुए। पाण्डव खड़े देखते रहे। जब तक श्रीकृष्ण का रथ, रथ का गरुड़ध्वज दीखता रहा, जब तक रथ से उड़ी धूलि दीखती रही वे खड़े देखते रहे उधर। पता नहीं क्यों इस बार हृदय बैठा जाता था। उत्साह जैसे उन सर्वेश के साथ चला गया। कौन जानता था कि श्रीकृष्ण अब भले मिलें, किन्तु इन्द्रप्रस्थ से वे सदा को विदा हुए। अब उन्हें यहाँ नहीं आना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज