पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
भोग की उपलब्धि के क्षण में जो एकाग्रता होती है, उससे भीतर का आनन्द- अपना ही रस अनुभूत होता है और भ्रमवश उसे विषय से आता मान लिया जाता है। दूसरी बात, भोग की उपलब्धि मात्र ज्ञान मात्र होता है। आपको निद्रा में, मूर्च्छा में अथवा जागते भी रबड़ की नली से स्वादिष्ट आम्र रस गले से नीचे उतार दिया जाये तो उससे आम्र रस पीने की इच्छा तृप्त होगी। भोग शरीर या इन्द्रियों को नहीं चाहिये। भोग चाहिये मन को, अर्थात मन को यह ज्ञान चाहिये कि मुझे अमुक भोग मिला। मन की भोगेच्छा अनन्त है- कभी तृप्त होने वाली नहीं। इन्द्रियों की शक्ति अल्प है और भोग भी अल्प हैं। उनकी उपलब्धि भी प्रारब्धाधीन है। रस-तृप्ति उन भोगों से न निकलकर अपने भीतर से आनी है। अत: बुभुत्सा का संदेश है कि अपने भीतर से तृप्ति प्राप्त करो। तुम आनन्द स्वरूप हो। बुभुत्सा मन का धर्म है और यह धर्म परिमार्जित होकर प्रेमयोग बनता है। भोगों में जो सहज प्रवृत्ति है, वह राग है। उसके विपरीत से- उसमें जो बाधक हो उससे द्वेष, अरुचि, उपरति होती है। ये राग-द्वेष, कर्म-प्रवृत्ति के मूल प्रेरक हैं। इन्हीं के वशवर्ती होकर सामान्य मनुष्य व्यवहार करता है। राग और द्वेष दोनों अज्ञानमूलक आविद्यक हैं। बुद्धिमान से बुद्धिमान मनुष्य उस विषय में मूर्ख होता है, ठीक विचार करने में असमर्थ होता है, जिस विषय में उसका राग अथवा द्वेष हो। जहाँ राग है, उसके दोष तथा जहाँ द्वेष है, उसके गुण दीखते ही नहीं हैं। सर्वेश्वर अन्तर्यामी अधोक्षज में राग- इस राग का ही नाम प्रेमयोग भक्ति है। संसार में कहीं किसी से भी राग हो तो वह प्रेम तो ही सकता है- निष्काम राग प्रेम है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता और ऐसे जाति, देश, धर्म के प्रेमी अनेक हुए हैं- लोकोत्तर पुरुष हुए हैं, किन्तु यह प्रेम भी निर्बीज नहीं होता। इसमें भी पुनर्जन्म देने का बीज विद्यमान रहता है। भले वह फिर तीर्थंकर, पैगम्बर अथवा देशोद्धारक के रूप में जन्म ले। राग केवल ईश्वर में लगकर प्रेमयोग बनता है। तब द्वेष स्वत: वैराग्य बन जाता है और प्रेमयोगी को संसार की ओर से हटाकर अन्तर्मुख कर देता है। जहाँ तक शरीर के निर्वाह की- बुभुत्सा के व्यावहारिक पक्ष की बात है, वह व्यक्ति के हाथ में तो है नहीं। उसकी पूर्ति प्रारब्ध पर निर्भर है और ईश्वरार्पित व्यक्ति के लिए तो उस सर्वेश्वर ने प्रतिज्ञा कर रखी है- ’तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।'[1] अब बात रहती है जिज्ञासा की। जिज्ञासा- जानने की इच्छा का संदेश है कि आप ज्ञान स्वरूप हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज