पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
18. जरासन्ध–वध
हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, शिवि, बलि ही नहीं, कपोत और व्याध तक इस अनित्य द्वारा नित्य यश को प्राप्त कर चुके हैं। आप तो महान् हैं। स्पष्ट था कि ये असाधारण अतिथि हैं और कोई असाधारण मांग करने वाले हैं स्वर घन गम्भीर, कलाइयों पर प्रत्यञ्चा चढ़ाने का काला चिन्ह कह रहा था कि ये ब्राह्मण नहीं हैं। जरासन्ध ने दो क्षण विचार किया- ‘होना तो इन्हें क्षत्रिय ही चाहिए। इनका तेज, निर्भयता, सकुमारता कहती है कि ये राजपुरुष हैं। मेरे शत्रुओं-में से ही कोई होंगे, किन्तु यहाँ ब्राह्मण वेश बनाकर आये हैं और याचना कर रहे हैं। क्या मांगेंगे ? अधिक से अधिक मेरा मस्तक मांग सकते हैं। मुझसे संग्राम में जय पाना असम्भव देखकर मेरी मृत्यु मांगने आये हैं। तब ? मैं इतना कापुरुष तो नहीं हूँ कि घर आये अतिथि को निराश कर दूँ।’ अहंकार ने जरासन्ध को उकसाया- ‘दैत्यराज बलि ने घर आने पर जान-बूझकर अपने शत्रु विष्णु को अपने आचार्य के मना करने पर भी सम्पूर्ण पृथ्वी दान कर दी, इसी से तो उनका यश अमर है, अन्यथा उन्हें कौन जानता ? शरीर तो कभी मरेगा ही, अत: इसके द्वारा महान यश क्यों न उपार्जित किया जाय। ब्राह्मणों के लिए ही क्षत्रिय का जीवन न लगे तो फिर उसका प्रयोजन भी क्या।’ स्थिर गम्भीर स्वर से मगधराज ने कहा- ‘आप ब्राह्मण अतिथि पधारे हैं, अत: जो मांगना हो संकोचहीन होकर माँगें। मैं आप लोगों को अपना मस्तक भी दे सकता हूँ; किन्तु कृपा करके यह बतला दें कि आप कौन हैं ? आप लोगों के वेश में व्यवहार में कोई संगति नहीं देखता। आपका वेश तो स्नातक ब्राह्मणों का है; किन्तु आप तीनों ने चन्दन-अंगराग लगाया है, पुष्पमाल्य धारण किया है। केवल सभा में जाते समय स्नातक चन्दन एवं माला धारण करते हैं, यह मैं जानता हूँ। आप तीनों नगर में द्वार से न आकर परिखा ध्वस्त करके क्यों आये?’ ‘हम स्नातक ब्राह्मण हैं, यह तो आपको समझ है, अन्यथा क्षत्रिय और वैश्य भी स्नातक वेश धारण करते हैं। पुष्पमाल्य तथा अंगराग धारण श्रीमानों का काम है।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- ‘हम क्षत्रिय हैं, इसलिये हमें धन या आहार नहीं चाहिए। हम आपसे द्वन्द्व-युद्ध मांगते हैं। यदि आप में साहस हो तो इसे स्वीकार करें। मित्र के घर में द्वार से और शत्रु के घर में बिना-द्वार के प्रवेश करना ही तो वीरनीति है।’ ‘मैंने आप लोगों से कब शत्रुता या कोई दुर्व्यवहार किया, यह सोचने पर भी स्मरण नहीं कर पाता हूँ।’ |
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