पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. अश्वमेध यज्ञ
धनज्जय ने पुत्र का स्वागत स्वीकार करने के स्थान पर उसे धिक्कारा- 'दुर्मति ! तू क्षत्रिय-धर्म से बहिष्कृत क्यों हो रहा हैं? मैं राजा युधिष्ठिर के यज्ञीय अश्व की रक्षा करता तेरे राज्य में आया हूँ और तू अपने को पराधीन बनाने आये को पिता मानकर उसका स्वागत करने चला हैं ! धिक्कार है तुझे ! मैं अस्त्र रखकर पुत्र से मिलने आता तो मेरा स्वागत करना उचित होता। मैं तो युद्ध करने निकला हूँ तुझमें कोई पौरुष नहीं हैं?' अर्जुन का आगमन जानकर उनकी पत्नी नागकन्या उलूपी भी पति-दर्शन करने नागलोक से आ गयी थी। उसे धनज्जय का पुत्र को धिक्कारना सहा नहीं गया। उसने वभ्रुवाहन को युद्ध के लिए उत्तेजित किया। वभ्रुवाहन स्वागत-सम्भार लिये नगर में लौट आया। वहाँ से युद्ध की सज्जा करके लौटा और अश्व उसके सेवकों ने पकड़ लिया। पिता-पुत्र में युद्ध प्रारम्भ हो गया। ऐसा युद्ध अर्जुन को भी कभी नहीं करना पड़ा था। इस युद्ध में उनका सब युद्ध-कौशल समाप्त हो गया और वभ्रुवाहन के द्वारा उनका वक्षस्थल विदीर्ण हो गया। अर्जुन युद्धभूमि में गिरे और दूसरी ओर अत्यन्त आहत वभ्रुवाहन भी मूर्च्छित होकर गिरा। पति-पुत्र दोनों मारे गये, यह समाचार पाकर मणिपुर राज्य की राजमाता चित्रांगदा शोक-विह्वल रणांगण में आयीं। उन्होंने सौत उलूपी को कठोर उलाहना दिया- 'नागिन ! तूने पति को ओर मेरे पुत्र को डँस लिया। अब तो तेरा हृदय शीतल हुआ?' उलूपी ने बुरा नहीं माना। उसने कहा- ‘बहिन ! मैं भी सती हूँ। सहमरण ही करना पड़ा तो मैं पति के शरीर के साथ तुम्हारे संग चिता में चढ़ूँगी; किन्तु नागिन में विष होता है तो अमृत भी उसके नागलोक में रहता है। तुम्हारी इस सौत के समीप अमृत मणि भी है। वह पति-पुत्र दोनों को जीवित करेगी।’ उलूपी ने वभ्रुवाहन तथा अर्जुन दोनों को अपने नागमणि के प्रभाव से जीवित कर दिया। पिता पराक्रमी पुत्र को गले लगाया। अर्जुन का वहाँ भरपूर सत्कार हुआ। वहाँ से अर्जुन अनेक देशों में अश्व के पीछे गये। सर्वत्र विजयश्री ने उनका वरण किया। वे अन्त में अश्व के साथ हस्तिनापुर लौटे। श्रीकृष्ण ने ही अर्जुन के लौटने का समाचार दिया युधिष्ठिर को। वे धनज्जय की यात्रा का पूरा पता बराबर रखते थे। उन्होंने धर्मराज से कहा- 'महाराज ! मेरे पास द्वारिकावासी एक विश्वासपात्र व्यक्ति आया था। अर्जुन को उसने अपनी आँखों देखा हैं। वे अनेक स्थानों पर युद्ध करने के कारण दुर्बल हो गये हैं। अब वे निकट आ पहुँचे हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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