पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
देवर्षि हस्ितनापुर पहुँचे। श्रीकृष्ण का संदेश सुनकर युधिष्ठिर तो चकित रह गये। अर्जुन को उन्होंने बुलवा लिया। युधिष्ठिर ने, दूसरे भाइयों ने तथा धृतराष्ट्र-गान्धारी ने भी अर्जुन को समझाया। केवल विदुरजी मौन बने रहे। उन्होंने कुछ भी कहना उचित नहीं माना। अर्जुन का उत्तर था- 'श्रीकृष्ण ही मेरे बल हैं। वे ही मेरी आत्मा हैं। वे मेरे सर्वस्व हैं। मुझे केवल उन्हीं का आश्रय है। लेकिन मार देने की अपेक्षा रक्षा करने का प्रण महान है। मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ूँगा। वे अपनी प्रतिज्ञा तोड़ सकते हैं।' जिस अभयदान से भैया की आयु अक्षय होती है, वह अभयनदान भंग करने को सुभद्रा भला कैसे मान लें और वे न मानें तो अर्जुन मान ही कैसे सकते हैं। कोई भी अर्जुन को भला श्रीकृष्ण की महिमा क्या समझावेगा। यह दो अत्यन्त प्रिय सखाओं का विवाद-दूसरों को तो इसमें तटस्थ ही रहना था। देवर्षि नारद ने जाकर द्वारिका का यह समाचार भी दे दिया कि अर्जुन किसी प्रकार मानने वाले नहीं हैं। वे कहते हैं- 'गन्धर्वराज को जो दण्ड देना है, वह श्रीकृष्ण मुझे दे दें। मैं सहर्ष उसे स्वीकार कर लूँगा।' इस विवाद में श्रीकृष्ण किसी को भी द्वारिका से साथ नहीं ले सकते थे। अर्जुन के पक्ष में कोई श्रीकृष्ण के विरुद्ध खड़ा होने वाला नहीं था। द्वारिका से दारुक ने रथ सजाया तो अकेले श्रीकृष्ण उस पर बैठे। इन्द्रप्रस्थ से भी अकेले अर्जुन निकले अपने रथ पर। सभी पाण्डव और दूसरे लोग तो इस युद्ध के द्रष्टा थे ही, स्वयं सुभद्रा गन्धर्वराज चित्रसेन को लेकर वहाँ ऐसे आ गयीं। जैसे माता अपने पुत्र की रक्षा करने आई हो। देवर्षि नारद तथा महर्षि गालव भी आये थे। गगन में सभी दिव्य महर्षिगण इस युद्ध को देखने आ गये। शारंगधन्वा और गाण्डीवधन्वा का, नारायण का नर के साथ यह अद्भुत युद्ध। साधारण शर और शस्त्रों का भला यहाँ क्या काम। पाच्चजन्य और देवदत्त शंखों की ध्वनि समाप्त हुई तो अर्जुन ने पाँच बाण मारकर श्रीकृष्ण के चरणों में अभिवादन किया। सखा को ऐसा ही उत्तर देकर श्रीकृष्ण दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। ऐसे दिव्यास्त्र जिनका लोगों ने नाम तक कठिनता से सुने थे: किन्तु अव्यग्र अर्जुन अपने दिव्यास्त्रों से उन्हें शान्त करते चले गये। जैसे अलौकिक अमित महिमा वाले दिव्यास्त्रों का प्रदर्शन चल रहा हो। महाभारत के पूरे युद्ध में भी दोनों पक्षों ने मिलकर इतने दिव्यास्त्रों का उपयोग नहीं किया था। युद्ध कुछ ही देर में अपने चरम बिन्दु पर जा पहुँचा जब श्रीकृष्ण ने झल्लाकर चक्र उठा लिया। अर्जुन ने केवल मस्तक झुकाया और उनके धनुष पर भगवान पुरारि का अमोघास्त्र पाशुपत पहुँच गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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