पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
'मैं क्या प्रयत्न करूं?' रोते-रोते चित्रसेन ने देवर्षि के चरण पकड़ लिये- 'जिन चक्रपाणि की भ्रूभंग से महाकाल भी काँपता है, उनके अपराधी को भला त्रिभुवन में शरण देने का साहस कौन करेगा। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली है तो चित्रसेन को अब बचाने वाला कौन है। अब तो आप कृपा करके कुछ ऐसा उपदेश करो कि मेरी मृत्यु तो सुधर जाय।' 'तुम इतने हताश मत हो ! तुम्हें शरण प्राप्त हो सकती है- समर्थ की शरण !' देवर्षि ने दृढ़ता-पूर्वक कहा- 'तुम यदि मेरी बात ठीक प्रकार से सुनो और उसका पूरा पालन करो तो तुम्हारी प्राण-रक्षा में कोई सन्देह नहीं है।' 'आप अवश्य ऐसा कर सकते हैं दयामय !' चित्रसेन ने अधिक दृढ़ता से देवर्षि के चरण पकड़े- 'भगवान की प्रतिज्ञा को भी असफल करने में केवल आप जैसे उनके भक्त ही समर्थ हैं। मैं आपकी शरण हूँ दयामय ! मेरी रक्षा कीजिये !' 'अच्छी बात !' देवर्षि तो पहिले से ही रक्षा करने की कटिबद्ध आये थे। बोले- 'मैं जो कहता हूँ, उसका पालन करो !' 'आज्ञा करें प्रभु !' गन्धर्व ने हाथ जोड़कर गिड़ गिड़ाते कहा- 'मैं आपके आदेश का अक्षरश: अवश्य पालन करूँगा।' 'आज अर्धरात्रि में इन्द्रप्रस्थ के पास यमुना-तट पर अकेले चले जाओ !' देवर्षि बोले- 'वहीं रुदन-क्रन्दन करते रहो। एक स्त्री आवेगी वहाँ तुम्हारे समीप; किन्तु वह जब तुम्हारी रक्षा का वचन दे दे, तभी अपने रुदन का कारण बतलाना।' नारदजी ने चित्रसेन को बोलने का भी फिर समय नहीं दिया। वे वहाँ से सीधे इन्द्रप्रस्थ के राजसदन में अर्जुन के अन्त:पुर में उतरे और पुकारा- 'भद्रे !' 'ओह, देवर्षि !' सुभद्रा हड़बड़ाकर उठीं और उलाहन भरे स्वर में बोलीं- 'पर आप मुझे भाभी के नाम से क्यों पुकारते है?' देवर्षि नारद की सुभद्राजी बचपन से बहुत वात्सल्य-भाजना हैं। इनसे बालिका थीं तब से रूठने का स्वत्व प्राप्त है उन्हें। करों में अचंल लेकर भूमि पर मस्तक रखकर प्रणाम किया।' 'एक ही श्रीकृष्ण से तुम और तुम्हारी भाभी सम्बन्धित हो' आसन पर बैठते-बैठते हँसकर कहा नारद जी ने- 'अत: मैं भद्रा और सुभद्रा के नामों का भेद भूल जाता हूँ। वैसे भी इस समय तुम्हारे भैया के ही स्मरण में चित्त लगा था।' 'आप तो भैया के यहाँ की चक्कर काटते रहते हैं।' सुभद्रा जी ने उलाहना दिया- 'अपनी इस बच्ची को तो पता नहीं कैसे आज स्मरण किया है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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