पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
जिस स्थिति में तत्त्वज्ञ गुरु अत्यन्त अभीप्सु शिष्य को ज्ञानोपदेश करता है, वह अवस्था अर्जुन की नहीं थी। इसलिये श्रीकृष्ण ने कह दिया कि वे उस उपदेश को स्मरण नहीं कर सकेंगे। श्रीकृष्ण ने कहा कि प्राचीन समय में एक धर्मात्मा तपस्वी ब्राह्मण काश्यप किसी सिद्ध ब्रह्मर्षि के पास गये। वे सिद्ध पुरुष जितेन्द्रिय, तत्त्वज्ञ, शास्त्र के ज्ञाता तथा समर्थ थे। अपनी सेवा से काश्यप ने उन्हें सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट होकर वे काश्यप से बोले- 'तात ! मनुष्य शुभ कर्म करके इस लोक में सुख तथा देवलोक में उत्तम भोग भोगते हैं। अशुभ कर्म के फलस्वरूप यहाँ दु:ख पाते हैं तथा मरने पर नरक की यातनाएँ भोगकर पशु-पक्षी, कीट-वनस्पति आदि योनियों में जन्म लेते हैं। किसी भी लोक में प्राणी सदा नहीं रहता। मोह तथा तृष्णावश अशुभ कर्म तथा पुण्य संस्कारों से शुभ कर्म करके जन्म-मृत्यु के चक्र में अनादिकाल से पड़ा जीव भटक रहा है। मैं भी ऐसे ही भटकता रहा हूँ। बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का कष्ट सहा। नाना भोग भोगे, अनेक माताओं का दूध पिया। ऐसा कोई कष्ट और अपमान नहीं जो मैंने न सहे हों। नरक, स्वर्ग सब देखे। सब रोग तथा मानसिक वेदना सही। सहस्त्र-सहस्त्र जन्म ऐसे ही बीत गये, तब कहीं सत्संग मिला और उससे सद्बुद्धि आई। समस्त लोक व्यवहार-सबकी अपेक्षा त्यागकर मैंने परमात्मा की शरण ली। तब कहीं यह माया का भ्रम मिटा। अब यह मेरा अन्तिम जन्म है। तुम अपने कल्याण के लिए अपनी बुद्धि के अनुरूप प्रश्न करो।' गुरु ने संसार की असारता, क्लेशरूपता बतलाकर इधर से सर्वथा वृत्ति हटाने तथा भगवत्शरण-ग्रहण को अनिवार्य तो बतला ही दिया। अब शिष्य ने पूछा- 'जीव का शरीर कैसे छूटता है? इस दु:खमय संसार से मुक्त कैसे हों? अविद्या से उत्पन्न शरीर का त्यागकर दूसरे शरीर में जीव कैसे जाता है? अपने शुभाशुभ कर्म प्राणी कैसे भोगता है? शरीर के न रहने पर उसके कर्म कहाँ रहते हैं?' गुरु ने संक्षिप्त उत्तर दिया- 'कर्म शरीर नहीं करता। शरीर तो जड़ है, यन्त्र के समान। शरीर के माध्यम से मन कर्म कराता है। कर्मों के संस्कार अन्त:करण में ही रहते हैं। जब एक देह का प्रारब्ध पूरा होने को आता है, काल की प्रेरणा से मनुष्य की बुद्धि भ्रमित हो जाती है। वह इन्द्रियों की तृप्ति के पीछे दौड़ता है। बुढ़ापे में देह के असमर्थ होने पर भी स्वादादिकी लिप्सा बढ़ जाने से असंयम करता है। युवावस्था से ही असंयम, अज्ञान के कारण विषम आहार-विहार से उसमें रोग के कारण एकत्र होते रहते हैं। बुढ़ापे में ये सब बढ़कर मृत्यु के निमित्त बनते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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