पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. अपने नामों की व्याख्या
26. हिरण्यगर्भ- योगीजन जिनकी पूजा करते हैं, श्रुति में जिनकी स्तुति है वह (समष्टि-संस्कार का मूल बीज) हिरण्यगर्भ मैं ही हूँ। 27. हयग्रीव- वरदाता होने से तथा हयशीर्ष रूप में अवतार लेने से मुझे हयग्रीव कहा जाता है। 28. धर्मज- प्राचीन काल में धर्म के पुत्र रूप में मैंने अवतार लिए। उस नर-नारायण युग्म रूप से गन्धमादन पर्वत पर अखण्ड तप किया है मैंने। इस अवतार में धर्म का पुत्र होने से मेरा ना धर्मज हुआ।' श्रीकृष्ण ने अंत में बतलाया- 'इक्कीस सहस्त्र ऋचाओं वाला ऋग्वेद है। एक सहस्त्र शाखाओं वाला सामवेद है। यजुर्वेद में एक सौ एक शाखाएँ हैं। पञ्चकल्पात्मक अथर्ववेद है। इन चारों वेदों में मेरा ही गान किया गया है।' यह सब हो हुआ; किन्तु अपने सुप्रसिद्ध नाम कृष्ण की व्याख्या ही नहीं की आपने। क्योंकि अर्जुन का भी एक नाम कृष्ण हैं, वे भी शरीर से श्यामवर्ण हैं इससे उन्होंने भी नहीं पूछा। भगवान व्यास भी श्यामवर्ण हैं, उनका नाम भी कृष्ण है, अत: वे भी मौन रह गये हैं। कृष अर्थात कर्षक अथवा सत्ता और ण अर्थात निर्वत्ति-आनन्द। जो आनन्द की सत्ता है, आनन्दघन है वह कृष्ण। जो आकर्षण की सत्ता है, मूर्तिमान आकर्षण है, वह कृष्ण। इतना तो इसमें आना ही चाहिए था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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