पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. भीष्म पर अनुग्रह
वे देह के आधार पर ही कल्पान्त तक आत्मा को वहाँ रहने वाला मानने वाले आसुर परम्परा में आते हैं। वे शरीर का स्मारक बनावें अथवा इसकी स्मृति सुरक्षित करें; किन्तु जो श्रुति-शास्त्र में श्रद्धा रखने वाले हैं, श्रीकृष्ण के चरणों की जिनके चित में प्रीति है, वे जानते हैं कि शरीर के साथ उसकी स्मृति का पूर्ण विसर्जन आवश्यक है। पुनर्जन्म प्राणी का प्राप्य नहीं है। वह जीव का कर्म-बन्धन है। प्राणी का दौर्बल्य है। उसका उच्छेद, उससे परित्राण उद्देश्य है। मनुष्य का परम प्राप्य-चरमोद्देश्य है निर्वाण अर्थात नाम-रूप का सर्वथा नि:शेष हो जाना। व्यक्तित्व का सर्वथा निमूर्लन। भीष्म में कहाँ अपने नाम का मोह था। रूप का- शरीर का मोह होता तो वे शरशय्या पर स्वीकार करते? किन्तु श्रीकृष्ण को अपनी सृष्टि के सुमंगल की भी चिन्ता करनी रहती है। ये सर्वेश्वर सभी प्राणियों के कल्याण के लिए जैसे समय-समय पर स्वयं अवतरित होते हैं, वैसे ही अपने भुवन-पावन भक्तों का यश-विस्तार भी करते रहते हैं। इनका अपना चरित, अपनी लीला का स्मरण जहाँ जीव का मंगल करता है, इनसे अभिन्न इनके भक्तों का स्मरण भी जीव को इनके ही प्रति तो समर्पित करता है। भक्त का सुयश बढ़ाना चाहते हैं ये उत्तम श्लोक, यह स्वाभाविक है। यशेच्छा बन्धन तो तब है, जब वह अपने हृदय में हो। भीष्म उपदेश करने के प्रति सर्वथा अनिच्छुक; किन्तु शिशु का श्रृंगार करके जब माता को स्वयं प्रसन्नता प्राप्त करनी है तो उस वात्सल्य-भाजन बच्चे को दयामयी जननी का वह प्रसाद अंगीकार ही करना चाहिये। भीष्म अत्यधिक भाव-विभोर हो गये। कई क्षणों तक वे मौन बने रहे। उनके बाण-विद्ध शरीर में रोमाञ्च लक्षित नहीं हो सकता था; किन्तु उनके अपलक नेत्रों का अश्रु-प्रवाह उनके कपोलों को आर्द्र कर रहा था। श्रीकृष्ण ने आगे बढ़कर अपने पटुके से उनके अश्रु पोंछ दिये। भीष्म को जो सुख मिला, उसका वर्णन वाणी नहीं कर सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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