पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
8. शोक समाचार
हुआ यह था कि एक व्याध-स्त्री के भी पांच ही पुत्र थे और वह भटकती हुई उस रात्रि उस लाक्षागृह के वहिर्भाग में अपने पुत्रों के साथ आकर सो गयी थी। उस समय तक पाण्डवों के पास कोई सेवक नहीं थे। धृतराष्ट्र ने उन्हें बहुत सामान्य व्यक्ति के समान उपकरण देकर भेजे थे। उनको अपने सब कार्य स्वयं करने थे। इनके भवन पर गृह-रक्षक नहीं थे। दुर्योधन तथा उसके साथी सेवक-गृह रक्षक भी नहीं थे। दुर्योधन तथा उसके साथी सेवक-गृहरक्षक क्यों भेजते जबकि उनका विचार दूषित ही था। रात्रि में अग्नि लगी तो वह व्याध-स्त्री अपने पुत्रों के शव के साथ उसमें भस्म हो गयी। किसी ने उसे रात्रि में उस भवन में आते देखा नहीं था। देवी कुन्ती अपने पुत्रों के साथ रात्रि में ही वहाँ से दूर वन में चली गयी थी। प्रात:काल दुर्योधन के द्वारा नियुक्त उसके सेवकों ने ही भवन को सर्वप्रथम देखा। रात्रि में भी अग्नि लगने पर उसे शान्त करने का कृत्रिम प्रयास और सर्वाधिक दौड़-धूप वही करते रहे थे। भवन प्रात: भी इस स्थिति में नहीं था कि उसमें प्रवेश किया जा सके। जो कुछ दूर से लकड़ी-बांस के उलट-पुलट कर देखा जा सकता था, उससे 6 शव दीख गये। सम्पूर्ण भस्म हो गये थे वे। दुर्योधन के सेवक अपने मन में सन्तुष्ट हो गये। उन्हें तो कृत्रिम शोक प्रकट करके हस्तिनापुर समाचार देने जाना था। शव गृह के किस भाग में मिले, इस पर विचार करना अनावश्यक था; क्योंकि अग्नि लगने पर गृह से निकल भागने के प्रयत्न में उसमें स्थित लोग कहीं किसी भी भाग में पहुँच सकते थे। शवों का बहिर्भाग में मिलना ठीक ही था। भीष्म पितामह तथा देवी गान्धारी सचमुच बहुत दु:खी थी। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य को भी कम शोक नहीं था। द्रोणाचार्य अपने अर्जुन जैसे सर्वश्रेष्ठ शिष्य को खोकर जैसे अपना उत्साह ही खो बैठे थे। विदुरजी शोक तो प्रकट कर रहे थे; किन्तु गम्भीर थे। धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि शोक का नाटक कर रहे थे और उनके नाटक में दिखावा पर्याप्त अधिक था। श्रीकृष्णचन्द्र ने भीष्मादि शोक-संतप्त लोगों से मिलकर सहानुभूति प्रकट की। उन्होंने शोक का नाटक करने वालों का भी समान शोक प्रकट करके सत्कार कर दिया। लेकिन वे तथा श्रीबलरामजी सात्यकि के समान शोक में विक्षिप्त प्राय नहीं थे। सात्यकि ने दुर्योधनादि किसी से बात ही नहीं की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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