पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. अश्वत्थामा को शाप
'यह भी संभव नहीं है।' व्यास जी ने अश्वत्थामा को सर्वथा निराश कर दिया– 'श्रीकृष्ण के शाप को सत्य होने के लिये तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक नहीं है। अपने शरीर की ओर देखो। सम्पूर्ण शरीर में तुम्हारे फफोले उठने लगे हैं। ये शीघ्र ही दुर्गन्धि-भरे घाव बन जाने वाले हैं। उन सर्वात्मा वासुदेव का विरोध करके कोई त्रिभुवन में किसी की सहानुभूति नहीं प्राप्त कर सकता। तुम्हें ब्रह्मलोक अथवा कैलाश में भी शरण नहीं मिलने वाली है। मैं तुम्हें अपने साथ रखने का साहस कैसे कर सकता हूँ। श्रीकृष्ण ने तुम्हें मनुष्यों से ही दूर रहने का शाप दिया है; किन्तु तुम किसी सुर-असुर या महर्षि के समीप जाना चाहोगे तो केवल अपमान मिलेगा तुम्हें। 'अश्वत्थामा के नेत्र भर आये– 'भगवन ! तीन सहस्र वर्ष थोड़े नहीं होते। इसके पश्चात यह अधम शाप-मुक्त होकर आपके समीप आवे तो आप इसे आश्रय देने का अनुग्रह करें, यह प्रार्थना है।' भगवान व्यास ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली– 'अश्वत्थामा ! श्रीकृष्ण किसी को दण्ड नहीं देते। अज्ञ जीव अब अपने कर्मों से अत्यधिक कलुष लपेट लेता है, तब उसके परिमार्जन का ही विधान वे दयामय करते हैं। तुम्हारे लिये भी उन्होंने कृपापूर्वक ही यह विधान किया है। इस अवधि को भोगकर तुम परिपूत हो जाओगे। तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जायेगा इससे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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