पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. बात का बतंगड़
‘धिक्कार है तुम्हें !’ श्रीकृष्ण ने कोई ध्यान नहीं दिया कि अर्जुन के नेत्रों से क्रोध एवं ग्लानि से अश्रु टपकने लगे हैं। वे भत्र्सना करने लगे- ‘यही बुद्धि है तुम्हारी ? वृद्धों की सेवा करके यही सीखा है तुमने ? तुम भी समझते हो कि तुम्हें धर्म का ज्ञान है ? पिता के समान पूज्य ज्येष्ठ भ्राता के सम्मुख शस्त्र उठाते तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुम इतने अज्ञानी हो कि एक साधारण अपराधी के समान अपने सम्मान्य एवं चक्रवर्ती नरेश को मारने को उद्यत हो गये और यह धृष्टता मेरे सामने करने चले हो ?' अर्जुन ने तत्काल अनुभव कर लिया कि उनसे बहुत बड़ी भूल हो गयी। अपने अपराध का आभास हो जाने पर भी अपनी प्रतिज्ञा का असमंजस तो था ही ! भरे हुए कंठ से बहुत विनीत बनकर बोले- ‘हृषीकेश ! आप गुरु, पिता- माता के समान हम सबके हितैषी हैं। आपकी कृपा अपार हैं आपके ही श्रीचरण हमारे आश्रय हैं। आप कोई ऐसा उपाय बतलावें कि मेरी प्रतिज्ञा भी भंग न हो और मुझे भ्रातृवध का अत्यन्त दारुण कर्म भी न करना पड़े।’ ‘धनञ्जय ! गुरुजानों का शस्त्र से वध नहीं किया जाता।’ श्रीकृष्ण ने कहा- ‘जो सदा से अपने द्वारा सम्मानित होते आये हैं, उनका अपमान कर देना, उन्हें तू कह देना ही उनका वध है। तिरस्कार से उनका गौरव गल गया, यह उनके मरण जैसा ही है।’ अर्जुन ने शस्त्र कोष में कर लिया। सिर झुकाकर, बिना सामने देखे, किसी प्रकार बड़े भाई से कह गये- ‘तू बोल मत ! मुझे क्रोध मत दिखा। तू स्वयं संग्राम से पीछे हट आया है, फिर तू मुझे उपालम्भ कैसे दे सकता है।’ तीन वार बड़े कष्ट से तू कहते-कहते अर्जुन का अन्तःकरण इतना व्याकुल हो उठा जैसे विदीर्ण हो जायगा। असह्य ग्लानि से वे अभिभूत हो गये। उन्होंने कवच उतार दिया और फिर तलवार कोष से खींची। श्रीकृष्ण ने हँसकर हाथ पकड़ लिया ‘अब फिर कोई बचपन सूझा है ? फिर यह शस्त्र ग्रहण क्यों ?’ अर्जुन फुटकर रो पड़े- ‘जिन देव तुल्य अग्रज के लिए मैं सदा जीवन अर्पण कर देना अपना सौभाग्य मानता रहा हूँ, उनका अपमान करके जीवित रहना मेरे लिए सम्भव नहीं है। आप अपने इस अधम सखा को अब शरीर त्याग की अनुमति दें। कोई भी आत्मघात से कम का विकल्प मुझे शान्ति नहीं दे सकता।’ ‘तब आत्मघात कर लो’ हँसकर श्रीकृष्ण ने कहा ‘इसमें शस्त्र सम्हालने की आवश्यकता क्या है ? विष की औषध विष होता है। अतः एक दोष का मार्जन उसके समान दूसरे दोष से हो सकता हैं। सत्पुरुषों के लिए स्वयं अपनी प्रशंसा करना शास्त्र ने आत्मघात माना है। तुमने वाणी से ही बड़े भाई का अपनमान किया है, अत: वाणी से आत्मप्रशंसा रूप आत्मघात करके उस अपराध का मार्जन कर लो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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