पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. कर्ण को स्वीकृति
’सबसे कठिन समस्या सारथि की है।’ कर्ण ने अन्त में स्वीकार किया, 'अर्जुन के रथ पर सारथि बनकर सम्पूर्ण सृष्टि के सर्जक एवं पालक श्रीकृष्ण बैठते हैं। वे उसके रक्षक हैं। उनकी शक्ति की क्षमता तो कहीं सम्भव नहीं है। किन्तु सारथ्य–कर्म में अवश्य मद्रराज शल्य श्रीकृष्ण की समता कर सकते हैं। आप प्रयत्न करें कि वे मेरे सारथि बन जायँ।’ अश्व-विद्या में मद्रराज शल्य श्रीकृष्ण के समान है। यह इतनी भी समानता किसी के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थिति थी और यह कहना उसकी बहुत बड़ी स्तुति थी। कर्ण का यह प्रस्ताव कुरुराज दुर्योधन ने शल्य को सुनाया तो वे सुनते ही कुद्ध हो उठे- 'तुम मेरा अपमान करते हो। मैं सूतपुत्र का सारथि बनूँगा ? कर्ण किस बात में मुझसे श्रेष्ठ है।' शल्य तो युद्ध त्यागकर चले जाने को ही उद्यत हो गये; किन्तु दुर्योधन ने बहुत अनुनय विनय करके उन्हें रोका। उनकी भूरि-भूरि प्रंशसा की। अपना काम निकालने के लिए उन्हें कर्ण से सब बातों श्रेष्ठ भी स्वीकार कर लिया। अन्त में बोला- 'कर्ण अस्त्र-ज्ञान में अर्जुन से श्रेष्ठ हैं और आप अश्व–विद्या में श्रीकृष्ण से बढ़कर है, अतः मेरा प्रिय करने के लिए यह कार्य कृपा करके स्वीकार कर लें।' शल्य प्रसन्न होकर बोले -’दुर्योधन ! तुम सबके सामने मुझे अश्व विद्या में श्रीकृष्ण से बढ़कर बतला रहे हो, यह मेरा बहुत बड़ा सम्मान तुमने किया। अतः मैं कर्ण का सारथि बनना स्वीकार करता हूँ, किन्तु मैं चाहे जैसी कड़ी बात कहूँ, कर्ण को उसे चुपचाप सुनना होगा।' शल्य जैसे मानधनी ने सारथि बनना स्वीकार कर लिया, यही बहुत बड़ी बात थीं। कर्ण को उनकी शर्त चुपचाप मान लेना पड़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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