पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
58. युद्ध में अश्व परिचर्या
शत्रु-समूह उमड़ रहा था। वाणों की अनवरत वर्षा कर रहा था। इससे अधिक उत्तम अवसर कहाँ मिलना था कि अकेले अर्जुन भूमि पर खड़े थे। अनेक महारथी आ गये थे और वे गदा, परिघ आदि कुछ भी प्रहार करने में कुछ उठा नहीं रख रहे थे किन्तु अर्जुन ने सबको अपनी शर-वर्षा से रोक दिया था। वे दिव्यास्त्र का प्रयोग करके शत्रुओं के शस्त्रों को बार-बार भस्म कर रहे थे। श्रीकृष्ण को अब इधर देखने की भी आवश्यकता नहीं थी। एक ही बार चारों ओर देखकर वे अपने सखा की सुरक्षा से निश्चिन्त हो गये थे। अश्वों को खोलकर श्रीकृष्ण ने टहलाया, भूमि में लिटाया। वाणों से बने उस गृह में ले जाकर मुस्कराते हुए वे उन अश्वों से बातें कर रहे थे और अश्व हर्ष से अपने सारथि को सूंघ-सूंघकर हिनहिना रहे थे। श्रीकृष्ण ने उनका कवच पहले ही उतार दिया था। उनके शरीरों से बाण निकाल दिये थे। जल में खड़ा करके उनको अपने हाथों से मलकर भली प्रकार स्नान कराया। श्रीकृष्ण के अमृतस्यन्दी स्नेहपूर्ण श्रीकरों का स्पर्श पाकर कहीं व्रण बचे रह सकते थे। घावों के चिह्न तक नहीं रह गये। श्रान्ति तो मिटी ही, सम्पूर्ण शरीर जैसे वज्र का हो गया और प्रत्येक नाड़ी मानो अपार शक्ति प्रवाह से परिपूर्ण हो गयी। पानी पिलाकर, स्नान कराके श्रीकृष्ण ने अश्वों को घास और दाना डाला। उन्हें पुचकार पुचकार कर उन सदा के गोपाल-पशुपाल ने खिलाया। वे स्नेह से न खिलाते, उनके समीप रहते किसी पशु को चारे से मुख लगाना अच्छा लगता है ? अश्व तो उनकी परिचर्या से, स्नेह से ही परिपुष्ट हो गये। वे स्वयं अब स्फूर्तिमय बने कूदने लगे थे रथ में जोते जाने के लिए। अपने इस अद्भुत अलौकिक सारथि की सेवा का सौभाग्य मिला है उन्हें, अब वे भली प्रकार समझते थे। ‘धन्य ये धनञ्जय रथ के अश्व। स्नान करते सरोवर में उतर ऋषि महर्षियों के नेत्र तो उस वाणों से बने गृह में ही लगे थे। उनमें एक ही चर्चा थी-‘अहोभाग्य इनका ! कोई सुर, कोई महर्षि इस सौभाग्य का किच्चित कण भी पाने का अधिकारी नहीं। इनकी पाद-रेणु भी पवित्र कर सकती है त्रिभुवन को।' श्रीकृष्ण अश्वों को लिये उस गृह से निकले। उन्होंन उनको कवच धारण कराया और रथ में जोड़ा। उन्होंने मुड़कर भी उस वाण-गृह की ओर नहीं देखा। जानते थे, स्नानार्थ उतरा ऋषि समूह उस गृह के जल में अन्तिम डुबकी लगाने आ गया है और वहीं अपनी सन्ध्या, तर्पण करके तब जायगा। हाथ का सहारा देकर अर्जुन को उन्होंने रथ पर बैठाया। चारों ओर एकत्र कौरव सेना में निराशा और भगदड़ मच गयी। वे अपने को धिक्कार रहे थे। यह सबने समझ लिया कि जब भूमि पर स्थित अर्जुन का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सका तो अब रथारूढ़, श्रीकृष्ण से संरक्षित उसके अवरोध का अर्थ मरण के अतिरिक्त और क्या होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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