पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
अर्जुन को युद्ध का निमित्त इसलिए बनना चाहिए क्योंकि वह क्षत्रिय है। युद्ध उसको स्वधर्म के अनुसार प्राप्त है। उसने स्वयं को इसके लिए पहिले से प्रस्तुत किया है। प्रसिद्ध किया है। उसके स्वजन उसी पर निर्भर हैं। अब यदि वह युद्ध त्याग करता है तो उसकी अपकीर्ति होगी। स्वजनों के साथ विश्वासघात होगा। शत्रु उसे कायर कहकर उसकी निन्दा करेंगे। यह निन्दा सह लेना उसके स्वभाव में नहीं हैं। तब वह अपने स्वभाव विवश क्रोधावेश में युद्ध करेगा ही। वह क्रोधावेश अनर्थकारी होगा। अत: सोच-समझकर, मोह और क्रोध से रहित होकर उसे कर्तव्य पालन के लिए युद्ध करना चाहिए। युद्ध में विजयी होने पर प्रत्यक्ष लाभ है और मारे जाने पर परलोक में कल्याण का शास्त्र आश्वासन देते हैं। अत: अर्जुन का जैसा अधिकार है, उसके अनुसार युद्ध करना ही उसका आवश्यक कर्तव्य इस समय है। उसे सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जय-पराजय की चिन्ता त्यागकर कर्तव्य पालन के रूप में युद्ध करना चाहिए। इसमें उसे कोई पापस्पर्श नहीं करेगा। मनुष्य का अधिकार कर्म करने में ही है। फल पाने, न पाने में उसका कोई वश नहीं है। कर्म करने पर उसका फल आवे तो भी वह ‘मेरे पौरुष का ही फल है’ इस अभिमान में नहीं आना चाहिए तथा कर्म का ही त्याग देने का दुराग्रह भी नहीं करना चाहिए। कर्म करने का उत्तम मार्ग हैं कि सफलता–असफलता में समान भाव रखकर, आसक्ति का त्यागकर कर्म किया जाय। न फलासक्ति हो, न कर्मासक्ति हो। इस प्रकार समत्व में बुद्धि को स्थित करके जो कर्म करता है वह पाप-पुण्य दोनों के स्पर्श से असस्पृष्ट रहकर जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। अविनाशी पद पाता है। अर्जुन ने यहाँ पूछा – ‘ऐसे स्थितप्रज्ञा प्राप्त हुए पुरुष की पहिचान क्या है ? स्पष्ट है कि प्रज्ञा स्थित है, इसकी पहिचान शरीर नहीं बन सकता। प्रज्ञा अन्त:करण में होती है अत: अन्त:करण की अवस्थाओं से ही स्थितप्रज्ञ को जाना जा सकता है। प्रज्ञा की चञ्चलता, अस्त-व्यस्तता का कारण कामनाएँ ही हैं। बाह्य वस्तुओं, व्यक्तियों की प्राप्ति-अप्राप्ति की इच्छा ही बुद्धि को अस्त-व्यस्त करती है। समस्त कामनाओं को त्यागकर जो अपने आप में सन्तुष्ट है, वह स्थितप्रज्ञ है। वह दु:ख से उद्विग्न नहीं होता। सुख की स्पृहा नहीं करता। राग, द्वेष और भय उसे प्रभावित नहीं करते। शुभ और अशुभ चाहे जो आवें दोनों में वह समान है और अपनी इन्द्रियों को वाह्य विषयों से उसने समेट लिया है। इन्द्रियों का विषयों से सर्वथा संयोग न हो यह असंभव है। कर्ण, नेत्र, नासिका, त्वचा को इनके विषय प्राप्त होते ही रहेंगे और आवश्यक आहार भी लेना ही पड़ेगा किन्तु विषयों के प्रति राग-द्वेष रहित होकर जो इन्द्रिय-व्यवहार करता है, मन को अपने वश में रखता है उसकी बुद्धि व्यवस्थित रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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