गोपिकाओं की प्रेमोपासना 9

गोपिकाओं की प्रेमोपासना


ब्रह्म मैं ढूँढ़यो पुरानन गानन, बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितै वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।।
टेरत हेरत हारि परयो, रसखानि बतायो न लोग-लुगायन।
देख्यो, दुरयो वह कुंज-कुटीर में बैठयो पलोटत राधिका-पायन।।

यद्यपि भक्त कभी यह नहीं चाहता कि भगवान प्रियतम मेरे पैर दाबें, परंतु वहाँ तो सर्वथा ऐक्य होता है। कोई छोटा-बड़ा रहता ही नहीं। महाभारत में सखा भक्त अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण के व्यवहार का वर्णन सञ्जय ने कौरवों की राजसभा में किया है। अर्जुन से ही जब वैसा व्यवहार था तब गोपियों के समान भक्तों की तो बात ही निराली है। गोपियों का परकीया भाव दिव्य है। लौकिक विषय-विमोहित मन वाले मनुष्य इसका यथार्थ भाव नहीं समझ कर अपने वृत्ति दोष से दोषारोपण कर बैठते हैं। असल में व्रज गोपिकाओं का प्रेम अत्यन्त उच्चतम अवस्था पर स्थित है। मधुर रस उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ प्रेम, स्नेह, मान, राग, अनुराग और भाव पर्यन्त पहुँच जाता है। भाव की पराकाष्ठा ही महाभाव है। यह महाभाव केवल प्रातःस्मरणीया व्रज देवियों में ही था। श्री भगवान ने प्रेमिक भक्तों की प्रेम कामना पूर्ण करने के लिये व्रज मण्डल में इस सच्चिदानन्दमयी दिव्य लीला को प्रकट किया था। गोपी-प्रेम की यह पवित्र लीला भगवान ने रमणाभिलाषा से अथवा गोपियों की काम वासना तृप्ति के लिये नहीं की थी; न तो भगवान में रमणाभिलाषा थी और न गोपियों में काम वासना ही। यह तो की गयी थी जगत के जीवों के काम-नाश के लिये! रासलीला-प्रकरण को समाप्त करते हुए मुनिवर श्री शुकदेवजी कहते हैं -

विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णो:
श्रद्धांवितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद्य:।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्र्व्पहिनोत्यचिरेण धीर:॥[1]

‘जो धीर पुरुष व्रज बालाओं के साथ भगवान विष्णु के इस रास-विहार की कथा को श्रद्धा पूर्वक सुने या पढे़गा, वह शीघ्र ही भगवान की पराभक्ति को प्राप्त कर हृदय के रोग रूप काम-विकार से छूट जायगा।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।33।40

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