श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. उद्धव को उपदेश
इतना बड़ा काण्ड, यदुकुल को महर्षि दुर्वासा का ऐसा शाप और उसमें भी बहुत ऋषियों का सकोप समर्थन। इतने पर भी किसी ने श्रीसंकर्षण या श्रीद्वारिकाधीश से कुछ नहीं कहा। श्रीबलरामजी शान्त है, श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे हो रहें हैं जैसे उन्हें कुछ पता न हो। महामन्त्री उद्धव से भी किसी ने न कुछ कहा और न कुछ पूछा। आकाश में भूमि पर होने वाले महाविनाश सूचक अपशकुन होने लगे। यह सब देखकर उद्धव जी का माथा ठनका। वे एकान्त में श्रीकृष्णचन्द्र के समीप गये और उनके चरणों को पकड़कर रो उठे -‘मेरे समर्थ परमोदार स्वामी ! आप सब कुछ जानकर भी शान्त हैं। आपने ऋषियों के शाप को कोई परिहार नहीं किया इससे लगता है कि हमारे यदुकुल का विनाश आपको अभीष्ट है और अब आप स्वयं लीला संवरण करना चाहते हैं।’ ‘मैं तो आपका उच्छिष्टभोजी दास हूँ।’ उद्धव ने सिसकते हुए कहा -‘आपकी उतारी माला, आपके पहिना वस्त्र, आपका प्रसाद चन्दन, ताम्बूल, अगंराग ही मेरा उपभोग्य रहा है और मेरा दृढ़ विश्वास है कि आपके पावन प्रासद की कृपा से मैं आपकी दुर्जय माया को पार कर लूँगा, किन्तु आपके इन पाद- पद्मों का सान्निध्य त्याग देना मेरे लिए असह्य है। अतः यदि आप धरा का त्याग ही करने वाले हैं तो मुझे भी अपने साथ अपने धाम ले चलें। मैं आपसे पृथक नहीं रह सकता।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने आज कोई आश्वासन नहीं दिया। वे मेघ गंभीर वाणी में बोले -‘उद्धव !’ तुम्हारा अनुमान ठीक है। ब्रह्माजी लोकपाल भी चाहते हैं कि मैं अब इस अवतार चरित का उपसंहार करके अपने लोक जाऊँ। यदुकुल को जो शाप मिला है वह टाला नहीं जा सकता। सबके अन्त में मुझे भी अपने लिए उस शाप के निमित्त बनाना है।’ ‘मेरे स्वरूप का, मेरे तत्त्व का, मुझे प्राप्त करने का जो ज्ञान है वह मैंने सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा को प्रदान किया था। वह ज्ञान ब्रह्मा से उनके पुत्रों को प्राप्त हुआ। ज्ञान की वह परम्परा धरा में लुप्त हो रही है। दिव्य लोकों में रहने वाले ऋषियों में ही वह है किन्तु उसे वे मानव के लिए सुबोध बनाकर दे पावेंगे, सन्देह है।’ श्रीमधुसूदन कहते गये -‘मैं सोच रहा था कि इस ज्ञान का उचित अधिकारी कौन है जो इसे धारण करके धरा पर रहे और ज्ञान की परम्परा की रक्षा करें।’ उद्धवजी ने प्रार्थना की थी स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र से कि वे उन्हें अपने साथ अपने धाम ले चलें किन्तु उन लीलामय की इच्छा से ज्ञान को, परम दुर्लभ इस ज्ञान को पाने की जिज्ञासा मन में जाग गयी। इसे प्राप्त करके इसकी परम्परा रक्षा के लिए यहीं पृथ्वी पर रहना पड़ेगा इस बात उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। वे हाथ जोड़कर अत्यन्त कातर भाव से बोले -‘ स्वामी ! यदि मैं आपकी दृष्टि में उस ज्ञान को पाने का अधिकारी होऊँ तो आप मुझे उसका उपदेश करें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज