श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. अनिरुद्ध का अपहरण
उमा-महेश्वर एकान्त-क्रीड़ा में मग्न थे। वहाँ उस समय स्त्रियाँ ही थीं। वाणासुर की पुत्री भी वहाँ अपनी सखी चित्रलेखा के साथ थी। अप्सरा चित्रलेखा अपने नृत्य-संगीत से भगवान विश्वनाथ को संतुष्ट करने में लगी थीं। देवी उमा अपने अराध्य के अंक में बैठी थीं। उषा युवती हो गयी थी। साम्ब शिव का यह दाम्पत्य देखकर उसके मन में काम का उदय हुआ। उसका मुख अरुण हो उठा। उषा पर पार्वती का पौत्री के समान स्नेह था। बाण उनका धर्मपुत्र था। उषा का भाव लक्षित करके उन दयामयी सर्वज्ञा ने कहा- 'वत्से! तुझे शीघ्र तेरा पति मिलेगा। वैशाख शुक्ल द्वादशी को प्रदोष काल में स्वप्न में जिसका संग तुझे प्राप्त होगा वह तेरा स्वामी होगा।' उषा के मन में उसी दिन से उत्कण्ठा जाग उठी। वैशाख शुक्ल द्वादशी को वह सायं सन्ध्याकालीन अन्धकार होते ही सो गयी और स्वप्न में उसे कमलचोलन, श्याम कर्ण, भुवन सुन्दर युवा पुरुष का अंग-संग प्राप्त हुआ। 'हाय प्रियतम कहाँ गये तुम?' निद्रा टूटते ही उषा व्याकुल होकर क्रन्दन कर उठी। रात्रि का प्रथम प्रहर ही था। सखियाँ समीप बैठी थीं। उषा की प्रिय सखी वाणासुर की मन्त्री कुम्भाण्ड की पुत्री चित्रलेखा (रामा) ने हँसकर पूछ लिया- उषा ने चकित होकर इधर-उधर देखा और फिर लज्जा से लाल हो गयी। वह संकुचित तो हो गयीं किन्तु उसके अश्रु सूख नहीं रहे थे। वह सिसकियाँ ले रही थीं। चित्रलेखा के संकेत पर दूसरी सखियाँ वहाँ से चली गयीं। उषा सखी के कण्ठ में भुजाएँ डालकर फफककर रो पड़ी। किसी प्रकार उसने कहा- 'स्वप्न में कोई अतिशय सुन्दर युवा मुझे अपनी बनाकर चला गया। हाय! अब मैं कुमारी नहीं रही और दूसरे को वरण की बात भी सोच नहीं सकती।' 'बहुत पगली है मेरी सखी।' चित्रलेखा खुलकर हँसी- 'कहीं स्वप्न की संग से कौमार्य भग्ङ होता है? तू व्यर्थ रुदन बन्द कर। पवित्र है तू।' 'तुमको भगवती पर्वताधिराज तनया का वरदान स्मरण नहीं है?' उषा ने रोते-रोते ही कहा- 'यह भी स्मरण नहीं कि आज तिथि कौन-सी है? मैं उस हृदयहारी के वियोग में प्राण दे दूँगीं। उसका दर्शन न हुआ तो तुम मुझ मेरी ही समझो।' सचमुच उषा का मुख पीला पड़ने लगा था। 'वे कौन हैं, यह मैं कहाँ जानती हूँ।' उषा फिर रोने लगी- 'इन्दीवर श्याम, कमल लोचन, विशाल वक्ष, सुदीर्घ भुज, इतनी ही मैं जानती हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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