श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. अनिरुद्ध का अपहरण
'रो मत। इतना बता दे कि मैं उसका चित्र बनाऊँ तो तू उसे पहिचान लेगी?' चित्रलेखा ने पूछा। उषा ने कहा- 'तू पहिचानने को पूछती है। वे मुझे जन्म-जन्म के पहिचाने लगते हैं।' वाणासुर के महामंत्री कुम्भाण्ड के यह पुत्री रामा अप्सरा चित्रलेखा से उत्पन्न हुई थी। अतः इसे लोग चित्रलेखा ही कहने लगे थे क्योंकि माता की अद्भुत चित्रांकन सिद्धि पुत्री को भी जन्म से ही प्राप्त हो गयी थी। दैत्यराज बलि का ज्येष्ठ पुत्र था वाण। दैत्य-दानव देवताओं के ज्येष्ठ बंधु हैं। महर्षि कश्यप की पत्नी दिति की संतान दैत्य और अदिति की संतान देवता। अतः दैत्यों को भी देवताओं के समान दिव्य देह तथा अनेक सिद्धियाँ जन्म से प्राप्त होती है। चित्रलेखा अपना अद्भुत चित्र-फलक तथा तूलिकायें उठा लायी। उसने उषा से कह दिया- 'तू ध्यानपूर्वक चित्र देखती रह। तेरे हृदयहारी का चित्र बन जाय तो बता देना। यदि त्रिलोकी में सचमुच वह कहीं हैं, तेरी कल्पना ने उसे नहीं बनाया है तो मैं अवश्य उसका पता लगा लूँगी।' चित्रलेखा ने दैत्य, दानव, यक्ष, राक्षस कुल में जो युवा थे, सुन्दर थे, द्विभुज थे उनका चित्र पहले बनाया। देवता, नाग, गन्धर्व, किन्नर सब वर्ग समाप्त हो गये। सुविधा इतनी थी कि केवल द्विभुज, एक मस्तक, दो नेत्र के सुंदर तथा श्याम वर्ण के युवा पुरुषों के चित्र बनाने थे। चित्रलेखा ध्यानमग्न थी। उसकी तूलिका अकल्पनीय तीव्रता से चल रही थी। उसका चित्र-फलक अद्भुत था। जब नवीन चित्र बनने लगता था तो पहिले बना चित्र स्वतः मिट जाता था। किसी सिद्ध देवयोनि के पुरुष के लिए जब उषा ने सिर नहीं हिलाया तो अन्त में चित्रलेखा मनुष्यों के चित्र बनाने लगी। केवल श्याम वर्ण और वह भी सुन्दर, जैसे पांडवों में केवल अर्जुन का चित्र बनाना पड़ा उषा को। वृष्णिवंशीय यादवों में जैसे ही श्रीकृष्ण का चित्र बना, उषा ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया मस्तक झुकाकर। प्रद्युम्न का चित्र देखकर उसने लज्जा से घूँघट खींच लिया। अब चित्रलेखा ने अनुमान कर लिया। उसने अनिरुद्ध का चित्र अंकित किया। 'यही, यही हैं वे।' उषा ने सखी का हाथ पकड़ लिया। जिससे वह इस चित्र को भी मिटा न डाले। 'साक्षात श्रीहरि द्वारिकाधीश के इन श्रीमान पौत्र ने मेरी सखी का हृदय हरण किया है?' चित्रलेखा ने अब उषा की ओर देखा। 'द्वारिका का अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग है। उसमें अपरिचित का प्रवेश अशक्य है।' उषा पर इस समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ना था। वह व्याकुल थी। प्राण देने को उद्यत थी। अन्ततः चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को ला देने का वचन दिया और आकाश मार्ग से द्वारिका पहुँची। वह महर्षि दुर्वासा को प्रसन्न करके अदृश्य रहने की विद्या प्राप्त कर चुकी थी। सोते हुए अनिरुद्ध का उसने हरण किया और उन्हें लाकर उषा के अन्तःपुर में उसकी शैय्या पर सुला दिया। 'अब अपने प्रियतम को तुम स्वयं जगा लेना।' चित्रलेखा यह कहकर हँसती हुई अपने घर चली गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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