श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. बहिन-विदा
बहिन सुभद्रा को विदा करना है। पांडवों ने वनवास के बारह वर्ष व्यतीत कर लिये और गुप्तवास का एक वर्ष वेश बदलकर महाराज विराट के यहाँ रहे। इस काल में अर्जुन वृहन्नला बनकर महाराज विराट की पुत्री उत्तरा को नृत्य-संगीत की शिक्षा दी। परिचय हो जाने पर विराट ने प्रस्ताव किया कि अर्जुन उनकी पुत्री स्वीकार कर लें। यह मेरे लिए पुत्री के समान है। मैंने उसे स्नेह से सुता समझकर ही शिक्षा दी है। अपनी शिष्या को मैं केवल अपनी स्नुषा के रूप में ही स्वीकार कर सकता हूँ। अर्जुन के इस प्रस्ताव को विराट ने स्वीकार कर लिया। अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह निश्चित हो गया और यह विवाह महाराज विराट की इच्छानुसार तत्काल करना था। अतः बहिन सुभद्रा को अभिमन्यु के साथ विदा करना आवश्यक हो गया। कौरवों के साथ युद्ध अनिवार्य ही लगता था। विराट जैसे नरेश के संबंधी बना लेने में पांडवों का सब प्रकार लाभ था। इस समय युधिष्ठिर को भाईयों के साथ कोई सम्मानपूर्ण स्थान, युद्ध की तैयारी की सुविधा भी आवश्यक थी। युद्ध के पश्चात क्या होगा, कोई कैसे निश्चित कह सकता है। क्षत्रिय कन्या का जब वाग्दान हो चुका, उसका विवाह युद्ध के पश्चात टाला नहीं जा सकता था क्योंकि अब दूसरे का वरण तो वह किसी भी अवस्था में करेगी नहीं। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रस्ताव उचित था कि बिना धूमधाम के अभिमन्यु का विवाह कर दिया जाय क्योंकि इस समय पूरा ध्यान पूरी शक्ति भावी संग्राम के लिए संचित करने में लगानी थी। संदेश आया और द्वारिका में सुभद्रा के विदा की तैयारी प्रारंभ हो गयी। बहिन को विराट नगर भेजना था क्योंकि अभी तो उसका अपना घर कहीं था ही नहीं। उसके पति को अपने शौर्य से अपना राज्य अपना निवास प्राप्त करना था। अद्भुत परिस्थिति थी। बहिन को विदा करना था, भागिनेय विवाह करने जा रहा था किन्तु उनके साथ उपहार सामग्री बहुत अधिक भेजने का कोई अर्थ नहीं था। इस समय पांडवों को सब सहायता अपेक्षित थी- वह सब सहायता तो स्वजन कर सकें किन्तु उपयोगी सहायता। बहुमूल्य वस्त्राभरण इस समय उनके लिए व्यर्थ भार बनते। श्रीबलराम जी ने स्वयं सामग्री सज्जित करायी। और श्रीकृष्णचन्द्र से पूछा- 'तुम बहिन के साथ जा रहे हो?' 'हम दोनों द्वारिका से चले जायँ, यह उचित नहीं होगा।' श्रीद्वारिकाधीश ने अग्रज को बतलाया- 'सात्यकि मेरे साथ जायेंगे।' अभिमन्यु को महाराज उग्रसेन ने उत्साहित किया कि वह द्वारिका की गजशाला, अश्वशाला में-से जितने और जो भी अश्व, गज चाहें, छाँट लें। उसे आग्रह करके श्रीबलराम प्रद्युम्नादि से दुर्लभतम अस्त्र, दिव्यास्त्र तथा कवच, खड्ग गदादि शस्त्र दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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