पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
92. द्वारिका-गमन
श्रीकृष्णचन्द्र के लिए हस्तिनापुर से द्वारिका से हस्तिनापुर आना इतना सहज स्वाभाविक हो गया था कि इसके लिए किसी विशेष निमित्त की आवश्यकता नहीं थी; किन्तु दोनों स्थानों के ही सुहृदो के लिए उनका वियोग बहुत दु:खद था। वे जब भी जाने की बात कहते थे, कोई बाधा तो नहीं देता था; किन्तु द्वारिका हो या हस्तिनापुर, वहाँ के लोग बहुत उदास, दु:खी हो जाते थे। बड़े समारोह से जैसे आने पर उनका स्वागत होता था, वैसे ही सब बहुत दूर तक पहुँचा कर उन्हें विदा करते थे। जो नित्य नूतन हैं, जिनके स्मरण में प्रतिक्षण नवनवायमान आनन्द उल्लसित होता रहता है, वे भले कितनी बार मिले हों, आते हैं तो लगता है कि जीवन में प्रथम बार ही उनका आगमन हो रहा है और जाते हैं तो लगता है कि जाने फिर उनके दर्शन जीवन में होंगे भी या नहीं होंगे। श्रीकृष्णचन्द्र ने द्वारिका जाने की इच्छा व्यक्त की। सात्यकि सहित दारुक को स्मरण किया तो पाण्डवों का मुख उदास हो गया। इस बार जैसे हृदय बैठा जा रहा था। कौन जानता था कि अब इन कमल-लोचन के श्रीचरण इस अवतार में तो यहाँ नहीं आने हैं। सारथि दारुक ने निवेदन किया- ‘प्रभु ! अपने अश्व आहार करके स्वस्थ, सबल हैं और रथ प्रस्तुत है।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने महाराज धृतराष्ट्र, महात्मा विदुर, देवी गान्धारी, बुआ कुन्ती, द्रौपदी आदि सबसे यथोचित रूप में मिलकर विदा ली। सुभद्रा तथा उत्तरा की पीठ पर हाथ फेरकर उन्हें समझाया। शिशु परीक्षित का सिर सूँघकर स्नेह किया। भगवान व्यास तथा अन्य महर्षियों के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। वे राजभवन के द्वार पर आये तो सब उनके पीछे आ गये। शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामक उनके चारों अश्वों ने हिनहिनाकर अपने स्वामी का स्वागत किया। दारुक के हाथ का सहारा लेकर श्रीकृष्ण अपने गरुड़ ध्वज रथ पर बैठे। बहिन सुभद्रा दूसरे रथ पर विराजीं। सम्राट युधिष्ठिर भी सहसा उस रथ पर चढ़ आये और दारुक के स्थान पर बैठकर उन्होंने स्वयं रथ-रश्मि अपने हाथों में ले ली। भीमसेन ने रथ पर आकर श्रीकृष्ण के पीछे खड़े होकर उनके उन पर वैदूर्यमणि के दण्ड से सुशोभित मुक्ता मालाओं वाला विशाल श्वेत छत्र लगाया। अर्जुन दाहिनी ओर चामर लेकर खड़े हुए। नकुल वाम भाग में चामर धारी बने और सहदेव व्यंजन लेकर पीछे भीमसेन के समीप खड़े हो गये। सम्पूर्ण नगर के पुरुष राजपथ के दोनों ओर आ गये थे और भवनों के छज्जों पर से नारियाँ श्वेत पुष्प, लाजा, चन्दन, दूर्वांकुर की वर्षा कर रही थीं। ब्राह्मण स्वस्ति-पाठ करके आर्शीवाद दे रहे थे। शंख ध्वनि हो रही थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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