पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. विचित्र प्रसन्नता
श्रीकृष्णचन्द्र ने सूर्यास्त हो जाने पर शिविर की ओर चलते हुए अर्जुन से कहा- ‘विजय ! सौभाग्य की बात है कि तुमने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। दुर्योधन ने जो सैन्य संग्रह किया था, उसके सम्मूख समर में सुर भी शिथिल हो सकते थे। त्रिलोक में तुम्हारे अतिरिक्त अन्य वीर नहीं है जो ऐसा दुष्कर कर्म कर सके। यहाँ जो नरेश एकत्र थे, उनमें अनेक इन्द्र को भी पराजित करने में समर्थ थे। उकेले उन सबको पराजित कर देना तुम्हारा ही पौरुष है। पुरुष श्रेष्ठ ! तुम्हारा परंतप नाम सचमुख सार्थक है। स्वयं सब कुछ करके अपनों को श्रेय देना, अपने आश्रितों को आगे कर देना श्रीकृष्ण का सदा का स्वभाव है। इनकी कृपादृष्टि रहे, इनके श्रीचरणों से चित दूर न चला जाय तो जीव अभिमानाक्रान्त नहीं होता और अपनी सफलता में इनके समर्थ कर को देख पाता है। अर्जुन ने कहा- ‘केशव ! इसमें आश्चर्य की तो कोई बात नहीं है। मैं इससे भी अधिक पराक्रम प्रकट कर सकता हूँ, यदि आप ऐसे ही सहायक संरक्षक हैं। कठपुतली का पौरुष तो उसके संचालक की शक्ति है और और आपकी शक्ति नि:सीम है। वह जब अर्जुन के माध्यम से प्रकट होती है तो उसकी समता कहीं कैसे हो सकती है। यह प्रभाव, यह पौरुष, यह विजय तो आपकी ही है और आप ही की अनुकम्पा है तो हम सदा आपकी बधाई के पात्र बने रहेंगे।' श्रीकृष्ण यह सब सुना नहीं करते। वे तो जिसे अपना स्वीकार कर लेते हैं, उसके हाथ में उठा तृण भी उन्हें त्रिभुवन का सर्वोत्तम रत्न लगता है। उन्होंने, युद्धभूमि में अर्जुन ने जो पराक्रम प्रकट किया था, उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की। अर्जुन के द्वारा मारे गये लोगों को दिखलाते, सखा का उत्साह बढ़ाते लौट रहे थे। आज नन्दिघोष रथ मन्दगति से लौट रहा था। स्वयं अर्जुन को आश्चर्य था कि उनके शरों से इतना संहार एक दिन में सम्भव हुआ है। युधिष्ठिर के समीप पहुँचकर श्रीकृष्णचन्द्र रथ से कूदे और अभिवादन करके हर्षोल्लासित स्वर में बोले- ‘महाराजधिराज का सौभाग्य सूर्य पूर्ण प्रकाशित है। आपका शत्रु मारा गया। आपके अनुज ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली। युधिष्ठिर के नेत्र भर आये। कुछ क्षण वे हर्ष के वेग में विह्वल बोल ही नहीं सके। अपने को सम्हालकर बोले- कमलनयन ! आपके मुख से यह समाचार पाकर मेरे हर्ष का पार नहीं है। गोविन्द ! आप जिनके आश्रय हैं, उनके लिए ऐसे संवाद सदा ही सुलभ हैं। हम तो आपके ही आश्रित है। आपके ही भरोसे हम इस युद्ध में उतरने का साहस कर सके। आपका संरक्षण जिसे प्राप्त है, उसके लिए त्रिलोकी में कुछ भी दुष्कर नहीं है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज