पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. शक्ति का संस्तवन
धर्मराज युधिष्ठिर ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पितामह भीष्म द्वारा व्यहूबद्ध कौरव सेना को देखा। कौरवों के पास पाण्डवों से डेढ़ गुनी से भी अधिक सेना थी, ग्यारह अक्षौहिणी सेना। उसे देखकर युधिष्ठिर उदास होकर अर्जुन से बोले – ‘धनंजय ! महातेजस्वी भीष्म ने शास्त्रोक्त विधि से जिस व्यूह का निर्माण किया है इसका भेदन मुझे तो असम्भव लगता है। इसने तो और हमारी सेना को संशय में डाल दिया है। इस व्यूह से हमारी रक्षा कैसे हो सकेगी ?’ अर्जुन हँसकर बोले –‘राजन ! संग्राम में केवल संख्या बल, शस्त्र बल और युद्ध कौशल से विजय नहीं होती। थोड़े से मनुष्य भी बुद्धि, गुण, संख्या में अपने से अधिक वीरों को जीत सकते हैं, यदि सत्य, दया, धर्म और उद्यम उनके साथ हों। देवताओं का कहना है कि जहाँ धर्म होता है उसी पक्ष की विजय होती है। अत:इस युद्ध में हमारी विजय निश्चित है। ‘देवर्षि नारद का कहना है – ‘जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय हैं।’ विजय सदा श्रीकृष्ण की अनुगामिनी है। विश्वम्भर श्रीकृष्ण हमारे साथ हैं। वे आपकी विजय कामना करते हैं। उन सनातन पुरुष गोविन्द का तेज अनन्त है अत: मुझे तो आपके विषाद का कोई कारण दीखता नहीं। हमारी विजय असन्दिग्ध है।’ अब युधिष्ठिर ने अपनी व्यूहाकार में अवस्थित सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी। ब्राह्मणों को दान करके, स्वस्तिवाचन पूर्वक धर्मराज अपने रथ पर आरूढ़ हुए। युद्ध स्थल में सैनिकों के दोनों पक्ष इतनी दूर आ गये कि वे एक दूसरे को स्पष्ट देख सकें। तब श्रीकृष्ण ने भीष्म की ओर संकेत करके अर्जुन से कहा – ‘कुरुकुल की ध्वजा फहराने वाले ये भीष्म प्रधान सेनापति हैं। इनको घेरकर जो बहुत बड़ी सेना इनकी सुरक्षा के लिए खड़ी है उसका पहिले संहार करके तब तुम भीष्म से युद्ध की इच्छा करना।’ कौरवों का एक बड़ा दुर्भाग्य था कि उनके पक्ष के सब अपनी ही शक्ति को मुख्य मानते थे जबकि भारतीय सनातन धर्म सब कार्यों में आधिदैविक सहायता को प्रमुख मानता है। जिस वस्तु या क्रिया का जो अधिदेवता है उसकी अनुकूलता प्राप्त हो तो कर्म सुगम हो जाता है; अन्यथा शक्ति तथा कर्म-कौशल होने पर भी कार्य में अनेक विध्न आते हैं और उसकी सफलता सन्दिग्ध हो जाती है। श्रीकृष्ण की छाया भी प्रमाद नहीं छूती। वे किसी ओर से असावधान नहीं होते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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