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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
36. यात्रा के अन्त में यात्रियों का यमुना-तट पर रात्रि-विश्राम तथा रात्रि के शेष होने पर यमुना-पार जाने का उपक्रम
गोपरमणियों का गान सुनकर यशोदारानी भी उठ बैठती हैं। सदा तो मैया प्रथम जागती थीं, फिर व्रज सीमन्तिनियों का दधिमन्थन एवं श्रीकृष्ण-लीलागान आरम्भ होता था। पर आज क्रम बदल गया। आज मैया अतीत की स्मृति में ऐसी फँसीं कि और सब कुछ भूल गयीं। नीलमणि उनकी कोख से भूमि पर पदार्पण, श्रीवसुदेव के दूत का आगमन, छः दिन का अखण्ड जन्मोत्सव-समारोह एवं छठी पूजन, पूतनामोक्षण, श्रीधर ब्राह्मण का प्रवंचन, शकटभंजन, नामकरण, अन्नप्राशन, वर्ष गाँठपूजन, तृणावर्त निधन, नीलमणि का नर्तन एवं चन्द्र खिलौना-पाचन, रामलीला दर्शन, मृत्तिकाभक्षण, फलवाली के दिये फलों का परिवेषण, विविध भाँति से लालन-पालन, कण्व का खीर भोजन, शालग्राम देव का अपहरण, श्रीकृष्णचन्द्र का वन्यक्रीडन एवं जननी द्वारा ‘हाऊ’ का भय प्रदर्शन, चोटी बढ़ने के प्रलोभन से नीलमणि का दुग्धपान, गोपसुन्दरियों के घर जा-जाकर नवनीत-अपहरण, नानाविध उपालम्भ के मिस से गोप-सुन्दरियों का व्रजेश्वरी के समक्ष श्रीकृष्णलीला कीर्तन, मुक्ता तरु से मुक्ता फल का सृजन, अन्य गृह में न जाने के लिये जननी का प्रबोधन, पुत्र के लिये दधिमन्थन, नीलमणि का दधिभाण्ड भंजन, जननी कृत शासन एवं उदर बन्धन, अनुज के बन्धन से बलराम का रोदन, यमलार्जुन तरु का पतन, श्रीकृष्णचन्द्र का उन्मुक्त विहरण एवं जननी कृत आह्वान तथा अन्त में सबके परामर्श से वृन्दावन की ओर गमन। इन समस्त लीलाओं को, इनसे सम्बद्ध अगणित घटनावली को, अपनी नीलमणि की असंख्य मृदुल मनोहर उन्मादिनी बाल्यभंगिमाओं को बारंबार स्मरण करती हुई जननी यशोदा इनमें ऐसी डूबीं कि समय पर जागना भी भूल गयीं। अखण्डरूप से दिन भर अपने नीलमणि की लीला का ही गान सुनते रहने पर वात्सल्य रसघनमूर्ति यशोदारानी के चित्त की यह अवस्था हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है; आश्चर्य तो यह है कि इस समय पुनः गोपरामाओं के उन्हीं गीतों को श्रवण कर वे सर्वथा बेसुध नहीं हो गयी हैं, अपितु तन्द्रा से जाग उठी हैं! किसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से ही ऐसा हुआ है। अन्यथा मैया यदि सतत स्नेहोन्मादिनी बनी रहें तो नीलमणि की सँभाल कौन करे। वास्तव में तथ्य यही है कि उनके नीलमणि की अचिन्त्य-लीलामहाशक्ति ही उन्हें रसास्वादन कराने के उद्देश्य से ही मैया को आत्मविस्मृत करती हैं और फिर आवश्यकता के समय बाह्य जगत में ले आती हैं। अस्तु, व्रजेश्वरी उठती हैं, उठ कर वस्त्र परिवर्तन कर अपने नीलमणि के प्रातर्भोजन की सामग्रियाँ एकत्र करने लगती हैं। वास्तुपूजन तो श्रीरोहिणी ने जननी के उठने से पूर्व ही कर लिया है एवं दासियाँ दधिमन्थन में लग चुकी हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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