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समस्त व्रजपुर अरुणोदयराग से रंजित है। आम्र प्रशाखाओं में छिपी कोकिल ‘कुहू’ ‘कुहू’ स्वर भर रही हैं। इतना मधुर स्वर, मानो कोकिल-कण्ठ की ओट में रागजननी महामाया शैलेन्द्रनन्दिनी आज किसी सर्वथा नवीन, अत्यन्त रसमय राग का सुजन कर रही हों। अन्य विहंगमों का कलख, भौंरो की गुंजार, गो श्रेणी का हाम्बा-रव, गोपों का ‘हो-हो’ आह्वान, गोपसुन्दरियों का कलगान-इनसे व्रजेन्द्र की पुरी मुखरित हो रही है। व्रजरानी भी इसी समय अपने नीलमणि की नींद हटाने के उद्देश्य से मधुर स्वर में गा रही हैं-
- जागिये, ब्रजराज कुँवर! कमल-कुसुम फूले।
- कुमुद-बृंद सकुचित भए, भृंग लता भूले।।
- तमचुर खग रोर सुनहु बोलत बनराई।
- राँभति गौ खरिकनि में, बछरा हित धाई।।
- बिधु मलीन रबि प्रकास, गावत नर नारी।
- सूर स्याम प्रात उठौ, अंबुजकरधारी।।
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