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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
43. वकासुर का उद्धार; वकासुर के पूर्वजन्म का वृत्तान्त
सप्तस्वर्ग-सप्तपातालसमन्वित असंख्य ब्रह्माण्ड श्रेणी के प्रधान पालक जब वत्सपाल बने हैं, अपने अनन्त-अपरिसीम ऐश्वर्य को रससिन्धु के अतलतल में डुबाकर व्रजेन्द्रतनय श्रीकृष्णचन्द्र ने, रोहिणीनन्दन बलराम ने जब गो शावक संलालन का व्रत स्वीकार किया है, तब दिनचर्या भी उसके अनुरूप होनी ही चाहिये। इसीलिये इस वृन्दावन में-
इस मन्त्रपाठ के द्वारा उनका आवाहन नहीं होता; आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नानीय, धूप, दीप, नैवेद्य आदि का विधिवत समर्पण होकर उनकी आराधना नहीं होती। यहाँ तो रजनी का विराम होने पर व्रजेश्वरी के सुमधुर मनुहारपूरित संगीत के द्वारा, जननी की अतिशय प्रेमिल भर्त्सनाओं के द्वारा वे जगाये जाते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं। अर्थात वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं।
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